"भारत-चीन युद्ध": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
राष्ट्रीय रक्षा कोष के प्रति दान |
छो [[]] |
||
पंक्ति 39:
=== भारत ===
युद्ध के बाद [[भारतीय थलसेना|भारतीय सेना]] में व्यापक बदलाव आये और भविष्य में इसी तरह के संघर्ष के लिए तैयार रहने की जरुरत महसूस की गई। युद्ध से भारतीय प्रधानमंत्री [[जवाहरलाल नेहरू]] पर दबाव आया जिन्हें भारत पर चीनी हमले की आशंका में असफल रहने के लिए जिम्मेदार के रूप में देखा गया। भारतीयों में देशभक्ति की भारी लहर उठनी शुरू हो गयी और युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों के लिए कई स्मारक बनाये गए। यकीनन, मुख्य सबक जो भारत ने युद्ध से सीखा था वह है अपने ही देश को मजबूत बनाने की जरूरत और चीन के साथ नेहरू की "भाईचारे" वाली विदेश नीति से एक बदलाव की। भारत पर चीनी आक्रमण की आशंका को भाँपने की अक्षमता के कारण, प्रधानमंत्री नेहरू को चीन के साथ शांतिवादी संबंधों को बढ़ावा के लिए सरकारी अधिकारियों से कठोर आलोचना का सामना करना पड़ा। भारतीय राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने कहा कि नेहरू की सरकार अपरिष्कृत और तैयारी के बारे में लापरवाह थी। नेहरू ने स्वीकार किया कि भारतीय अपनी समझ की दुनिया में रह रहे थे। भारतीय नेताओं ने आक्रमणकारियों को वापस खदेड़ने पर पूरा ध्यान केंद्रित करने की बजाय [[रक्षा मंत्रालय (भारत)|रक्षा मंत्रालय]] से कृष्ण मेनन को हटाने पर काफी प्रयास बिताया। भारतीय सेना कृष्ण मेनन के "कृपापात्र को अच्छी नियुक्ति" की नीतियों की वजह से विभाजित हो गयी थी और कुल मिलाकर 1962 का युद्ध भारतीयों द्वारा एक सैन्य पराजय और एक राजनीतिक आपदा के संयोजन के रूप में देखा गया। उपलब्ध विकल्पों पर गौर न करके बल्कि अमेरिकी सलाह के तहत भारत ने वायु सेना का उपयोग चीनी सैनिको को वापस खदेड़ने में नहीं किया। [[सीआईए]] (अमेरिकी गुप्तचर संस्था) ने बाद में कहा कि उस समय तिब्बत में न तो चीनी सैनिको के पास में पर्याप्त मात्रा में ईंधन थे और न ही काफी लम्बा रनवे था जिससे वे वायु सेना प्रभावी रूप से उपयोग करने में असमर्थ थे। अधिकाँश भारतीय चीन और उसके सैनिको को संदेह की दृष्टि से देखने लगे। कई भारतीय युद्ध को चीन के साथ एक लंबे समय से शांति स्थापित करने में भारत के प्रयास में एक विश्वासघात के रूप में देखने लगे। नेहरू द्वारा "हिन्दी-चीनी भाई, भाई" (जिसका अर्थ है "भारतीय और चीनी भाई हैं") शब्द के उपयोग पर भी सवाल शुरू हो गए। इस युद्ध ने नेहरू की इन आशाओं को खत्म कर दिया कि भारत और चीन एक मजबूत एशियाई ध्रुव बना सकते हैं जो शीत युद्ध गुट की महाशक्तियों के बढ़ते प्रभाव की प्रतिक्रिया होगी।
सेना के पूर्ण रूप से तैयार नहीं होने का सारा दोष रक्षा मंत्री मेनन पर आ गया, जिन्होंने अपने सरकारी पद से इस्तीफा दे दिया ताकि नए मंत्री भारत के सैन्य आधुनिकीकरण को बढ़ावा दे सके। स्वदेशी स्रोतों और आत्मनिर्भरता के माध्यम से हथियारों की आपूर्ति की भारत की नीति को इस युद्ध ने पुख्ता किया। भारतीय सैन्य कमजोरी को महसूस करके पाकिस्तान ने जम्मू और कश्मीर में घुसपैठ शुरू कर दी जिसकी परिणिति अंततः 1965 में भारत के साथ दूसरा युद्ध से हुआ। हालांकि, भारत ने युद्ध में भारत की अपूर्ण तैयारी के कारणों के लिए हेंडरसन-ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट का गठन किया था। परिणाम अनिर्णायक था, क्योंकि जीत के फैसले पर विभिन्न स्रोत विभाजित थे। कुछ सूत्रों का तर्क है कि चूंकि भारत ने पाकिस्तान से अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था, भारत स्पष्ट रूप से जीता था। लेकिन, दूसरों का तर्क था कि भारत को महत्वपूर्ण नुकसान उठाना पड़ा था और इसलिए, युद्ध का परिणाम अनिर्णायक था। दो साल बाद, [[1967 नाथू ला और चो ला संघर्ष|1967 में, चोल घटना]] के रूप में चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच एक छोटी सीमा झड़प हुई। इस घटना में आठ चीनी सैनिकों और 4 भारतीय सैनिकों की जान गयी।
|