"जगदीशचंद्र माथुर": अवतरणों में अंतर

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'''जगदीशचंद्र माथुर''' (जन्म [[१६ जुलाई]], [[१९१७]] -- १९७८) [[हिंदी]] के लेखक एवं [[नाटक]]कार थे। वे उन साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने [[आकाशवाणी]] में काम करते हुए हिन्दी की लोकप्रयता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। रंगमंच के निर्माण, निर्देशन, अभिनय, संकेत आदि के सम्बन्ध में आपको विशेष सफलता मिली है।<ref>{{cite book |last= |first=कृष्णचन्द्र |title= समय दर्पण|year=मार्च २००० |publisher=श्रीमाली प्रकाशन |location=कोलकाता |id= |page=८६-८७ |accessdayaccess-date= १७|accessmonth= सितंबर|accessyear= २००९}}</ref>
 
परिवर्तन और राष्ट्र निर्माण के ऐसे ऐतिहासिक समय में जगदीशचंद्र माथुर, आईसीएस, [[ऑल इंडिया रेडियो]] के डायरेक्टर जनरल थे। उन्होंने ही 'एआईआर' का नामकरण [[आकाशवाणी]] किया था। टेलीविज़न उन्हीं के जमाने में वर्ष [[१९५९]] में शुरू हुआ था। हिंदी और भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों को वे ही [[रेडियो]] में लेकर आए थे। [[सुमित्रानंदन पंत]] से लेकर [[दिनकर]] और [[बालकृष्ण शर्मा]] नवीन जैसे दिग्गज साहित्यकारों के साथ उन्होंने हिंदी के माध्यम से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूचना संचार तंत्र विकसित और स्थापित किया था।<ref>{{cite web |url= http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2006/07/060719_column_kamleshwar.shtml|title= सूचना संचार क्राँति के जनक माथुर साहब|accessmonthdayaccess-date=[[17 अक्तूबर]]|accessyear= [[2007]]|format= एसएचटीएमएल|publisher= बीबीसी|language=}}</ref>
जगदीश चंद्र माथुर-
उपन्यास --- यादों का पहाड़,आधा पुल,मुठ्ठी भर कांकर,कभी न छोड़ें खेत,धरती धन न अपना
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'कोणार्क' उत्तम नाटक है। इतिहास, संस्कृति और समकालीनता मिलकर निरवधिकाल की धारणा और मानवीय सत्य की आस्था को परिपुष्ट करते हैं। घटना की तथ्यता और नाटकीयता के बावजूद महाशिल्पी विशु की चिंता और धर्मपद का साहसपूर्ण प्रयोग, व्यवस्था की अधिनायकवादी प्रवृत्ति से लड़ने और जुझने की प्रक्रिया एवं उसकी परिणति का संकेत नाटक को महत्वपूर्ण रचना बना देता है। कल्पना की रचनात्मक सामर्थ्य और संस्कृति का समकालीन अनुभव कोणार्क की सफल नाट्य कृति का कारण है। कोणार्क के अंत और घटनात्मक तीव्रता तथा परिसमाप्ति पर विवाद संभव है, परंतु उसके संप्रेषणात्मक प्रभाव पर प्रश्न चिन्ह संभव नहीं है। 'पहला राजा' नाटक के रचना-विधान और वातावरण को 'माध्यम' और 'संदर्भ' में रूप में प्रयोग करके लेखक ने व्यवस्था और प्रजाहित के आपसी रिश्तों को मानवीय दृष्टि से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। स्पुतनिक, अपोलो आदि के प्रयोग के कारण समकालीनता का अहसास गहराता है। पृथु, उर्वी, कवष आदि का प्रयास और उसका परिणाम सब मिलकर नाटक की समकालीनता को बराबर बनाए रखते हैं। पृथ्वी की उर्वर शक्ति, पानी और फावड़ा-कुदाल आद् को उपयोग रचना के काल को स्थिर करता है।
 
'परंपराशील नाट्य' महत्वपूर्ण समीक्षा-कृति है। इसमें लोक नाट्य की परंपरा और उसकी सामर्थ्य के विवेचन के अलावा नाटक की मूल दृष्टि को समझाने का प्रयास किया गया है। रामलीला, रासलीला आदि से संबद्ध नाटकों और उनकी उपादेयता के संदर्भ में परंपरा का समकालीन संदर्भ में महत्व और उसके उपयोग की संभावना भी विवेच्य है। 'दस तसवीरें' और 'इन्होंने जीना जाना है' रचनाकार के मानस पर प्रभाव डालने वाले व्यक्तियों की तस्वीरें और जीवनियाँ हैं, जिनका महत्व उनके रेखांकन और प्रभावांकन की दृष्टि से अक्षुण्ण है।<ref>{{cite book |last=वर्मा |first= धीरेन्द्र|title= हिन्दी साहित्य कोश भाग-२|year= १९८५ |publisher= ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, उ.प्र.|location= वाराणसी, भारत|id= |page= १९८-१९९|editor: |accessdayaccess-date= १७|accessmonth= अक्तूबर|accessyear= 2007}}</ref>
 
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