"समुद्रगुप्त": अवतरणों में अंतर

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समुद्रगुप्त के पिता गुप्तवंशीय सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम और माता लिच्छिवि कुमारी श्रीकुमरी देवी थी। [[चन्द्रगुप्त प्रथम|चंद्रगुप्त]] ने अपने अनेक पुत्रों में से समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी चुना और अपने जीवनकाल में ही समुद्रगुप्त को शासनभार सौंप दिया था। प्रजाजनों को इससे विशेष हर्ष हुआ था किंतु समुद्रगुप्त के अन्य भाई इससे रुष्ट हो गए थे और राज्य में ग्रहयुद्ध छिड़ गया। प्रतिद्वंद्वी में सबसे आगे राजकुमार काछा थे। काछा के नाम के कुछ सोने के सिक्के भी मिले है। गृहकलह को शांत करने में समुद्रगुप्त को एक वर्ष का समय लगा। इसके पश्चात्‌ उसने दिग्विजययात्रा की। इसका वर्णन प्रयाग में अशोक मौर्य के स्तंभ पर विशद रूप में खुदा हुआ है। पहले इसने आर्यावर्त के तीन राजाओं-अहिच्छव का राजा अच्युत, पद्मावती का भारशिववंशी राजा नागसेन और राज कोटकुलज-को विजित कर अपने अधीन किया और बड़े समारोह के साथ पुष्पपुर में प्रवेश किया। इसके बद उसने दक्षिण की यात्रा की और क्रम से कोशल, महाकांतर, भौराल पिष्टपुर का महेंद्रगिरि (मद्रास प्रांत का वर्तमान पीठापुराम्‌), कौट्टूर, ऐरंडपल्ल, कांची, अवमुक्त, वेंगी, पाल्लक, देवराष्ट्र और कोस्थलपुर (वर्तमान कुट्टलूरा), बारह राज्यों पर विजय प्राप्त की।
 
जिस समय समुद्रगुप्त दक्षिण विजययात्रा पर थी उस समय उत्तर के अनेक राजाओं ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर विद्रोह कर दिया। लौटने पर समुद्रगुप्त ने उत्तर के जिन राजाओं का समूल उच्छेद कर दिया उनके नाम हैं : रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मा, गणपति नाग, नागसेन, अच्युत नंदी और बलवर्मा। इनकी विजय के पश्चात्‌ समुद्रगुप्त ने पुन: पुष्पपुर (पाटलिपुत्र) में प्रवेश किया। इस बार इन सभी राजाओं के राज्यों को उसने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। आटविक राजाओं को इसने अपना परिचारक और अनुवर्ती बना लिया था। इसके पश्चात्‌ इसकी महती शक्ति के सम्मुख किसी ने सिर उठाने का साहस नहीं किया। सीमाप्रांत के सभी नृपतियों तथा यौधेय, मानलव आदि गणराज्यों ने भी स्वेच्छा से इसकी अधीनता स्वीकार कर ली। समहत (दक्षिणपूर्वी बंगाल), कामरूप, नेपाल, देवाक (आसाम का नागा प्रदेश) और कर्तृपुर (कुमायूँ और गढ़वाल के, पर्वतप्रदेश) इसकी अधीनता स्वीकार कर इसे कर देने लगे। मालव, अर्जुनायन, यीधेय, माद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक और खर्परिक नामक गणराज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। दक्षिण और पश्चिम के अनेक राजाओं ने इसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया था और वे बराबर उपहार भेजकर इसे संतुष्ट रखने की चेष्टा करते रहते थे, इनमें देवपुत्र शाहि शाहानुशाहि, शप, मुरुंड और सैहलक (सिंहल के राजा) प्रमुख है। ये नृपति आत्मनिवेदन, कन्योपायन, दान और गरुड़ध्वजांकित आज्ञापत्रों के ग्रहण द्वारा समुद्रगुप्त की कृपा चाहते रहते थे। समुद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में आसाम तक तथा उत्तर में [[हिमालय]] के कीर्तिपुर जनपद से लेकर दक्षिण में सिंहल तक फैला हुआ था। प्रयाग की प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के सांधिविग्रहिक महादंडनायक हरिपेण ने लिखा है, 'पृथ्वी भर में कोई उसका प्रतिरथ नहीं था। सारी धरित्री को उसने अपने बाहुबल से बाँध रखा था।'
 
इसने अनेक नष्टप्राय जनपदों का पुनरुद्धार भी किया था, जिससे इसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गई थी। सारे भारतवर्ष में अबाध शासन स्थापित कर लेने के पश्चात्‌ इसने अनेक अश्वमेध यज्ञ किए और ब्राह्मणों दीनों, अनाथों को अपार दान दिया। शिलालेखों में इसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्त्ता' और 'अनेकाश्वमेधयाजी' कहा गया है। हरिषेण ने इसका चरित्रवर्णन करते हुए लिखा है-