"एकांकी": अवतरणों में अंतर
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"एक अंक वाले [[नाटक|नाटकों]] को '''एकांकी''' कहते
पश्चिम में एकांकी २० वीं शताब्दी में, विशेषत: [[प्रथम महायुद्ध]] के बाद, अत्यंत प्रचलित और लोकप्रिय हुआ। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उसका व्यापक प्रचलन इस शताब्दी के चौथे दशक में हुआ।
इसका यह अर्थ नहीं कि एकांकी साहित्य की सर्वथा आभिजात्यहीन विधा है। पूर्व और पश्चिम दोनों के नाट्य साहित्य में उसके निकटवर्ती रूप मिलते हैं। [[सस्कृंत]] [[नाट्यशास्त्र]] में नायक के चरित, इतिवृत्त, रस आदि के आधार पर रूपकों और उपरूपकों के जो भेद किए गए उनमें से अनेक को डॉ॰ कीथ ने एकांकी नाटक कहा है। इस प्रकार "[[दशरूपक]]" और "[[साहित्यदर्पण]]" में वर्णित व्यायोग, प्रहसन, भाग, वीथी, नाटिका, गोष्ठी, सट्टक, नाटयरासक, प्रकाशिका, उल्लाप्य, काव्य प्रेंखण, श्रीगदित, विलासिका, प्रकरणिका, हल्लीश आदि रूपकों और उपरूपकों को आधुनिक एकांकी के निकट संबंधी कहना अनुचित न होगा। "साहित्यदर्पण" में "एकांक" शब्द का प्रयोग भी हुआ
भाण : स्याद् धूर्तचरितो नानावस्थांतरात्मक :।
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