"अनुवाद अध्ययन": अवतरणों में अंतर

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{{स्रोतहीन|date=अक्टूबर 2018}}
'''अनुवाद अध्ययन''' (Translation studies) एक अन्तरविषयी अकादमिक विधा है जो [[अनुवाद]] एवं [[स्थानीकरण]] (localization) के सिद्धान्त, वर्णन एवं अनुप्रयोग का अध्ययन करती है। अन्तरविषयी विधा हो कर, अनुवाद अध्ययन अन्य विधाओ से वे चीज़ें ग्रहन् करती हैं जो अनुवाद को प्रोत्साहन देती हैं जैसे: तुल्नात्मक साहित्य, कम्प्युटर विज्नानविज्ञान, इतिहास, भाषा विज्नानविज्ञान, सांस्क्रितिक भाषा शास्त्र, संकेत विज्नानविज्ञान एवं शब्दावली विज्नान।विज्ञान।<ref name="undefined" />
 
"अनुवाद अध्ययन" शब्द की रचना एम्स्टेरडेम में रहने वाले अमरीकी पण्डित जेम्स एस हॉल्म्स ने अपने शोध पत्र, 'द नेम एण्ड नेचर ऑफ ट्र्र्राँस्लेशन स्टडीज़' में की।<ref>{{cite book |last1=James s. |first1=Holmes |title=The Name and Nature of Translation Studies. In Translated! Papers on Literary Translation and Translation Studies. |date=1972/1988 |publisher=Rodopi |location=Amsterdam |pages=67-80}}</ref> यह शोध पत्र इस विधा का उद्घोषक माना जाता है। अंग्रेज़ी के लेखक 'अनुवाद अध्ययन' के लिये आम तौर पर "ट्राँस्लेटॉलजी" शब्द का प्रयोग करते हैं, वहीं फ्राँस के लेखक "ट्रैडक्टॉल्जी" का। अमरीका में लोग 'अनुवाद एवं व्याख्या अध्ययन' रूपी शब्दावली का प्रयोग ज़्यादा पसंद करते हैं, वहीं यूरोपीय परम्परा, व्याख्या को अनुवाद अध्ययन का ही अभिन्न अंग मानती है।
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'''अकादमिक विधा की माँग'''
 
सन १९५८ में मौस्को में हुइ, 'सेकण्ड काँग्रेस ऑफ स्लएविस्ट्स' की बैठक में चर्चा का एक मुद्दा था की अनुवाद् किस विधा के ज़्यादा करीब है - भाषा विज्नानविज्ञान के या साहित्यिक पहलू के? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यह सुझाव दिया गया की अनुवाद अध्ययन को एक भिन्न विज्नान की ज़रूरत है, जो अनुवाद के हर पहलू को समझने में सक्षम हो, न की सिर्फ उसके भाषा विज्नानविज्ञान या साहित्यिक पहलू को। तुलनात्मक साहित्य के अन्तरगत १९६० के दशक में अमरीकी विश्व्विद्यालयों, जैसे आइओवा विश्व्विद्यालय एवं प्रिंसटन विश्वविद्यलय में भाष्यांतर कार्यशालाओं को प्रोत्साहित करा गया। १९५० और १९६० के दशकों में अनुवाद के विशय पर पद्धति-बद्ध, भाषा-विज्नानविज्ञान केंद्रित शोध हुए। सन १९५८ में फ्रेंच भाषा वैज्नानिक विनय व डॉबर्ल्नेट ने फ्रेंच एवं अंग्रेज़ी के मध्यस्थ द्वि-भाषाई विप्रीतार्थी शोध करा। सन १९६४ में यूजीन नाईडा ने 'टुवर्ड अ साइंस ऑफ ट्रांस्लेटिंग नामक पुस्तक लिखी जो की बाइबल अनुवादन का एक नियम-संग्रह था। यह नियम-संग्रह काफी हद तक हैरिस के 'रचनांतरण व्याकरण' से प्रभावित था।
 
सन १९५६ में जे सी कैटफर्ड ने भाषा-विज्नानविज्ञान के संदर्भ में अपना अनुवाद का सिद्दांत दिया। १९६० व १९७० के शुरुवात में चेक पण्डित जिरि लेवि, स्लोवाक के पण्डित एन्टोन पोपोविक एवं फ्रांटिसेक मिको ने साहित्यिक अनुवाद की शैलीगत पहलू पर शोध-कर्यकार्य करा।
 
शोध के यह पहले कदम एक तटस्थ रूप से जेम्स एस होलम्स के शोध-पत्र में स्प्ष्ट रूप से शामिल करे गए। यह शोध-पत्र कोपनहागन में हुई, 'थर्ड इन्टर्नेशनल काँग्रेस ऑफ अप्लाइड लिंग्विस्टिक्स' में पढ़ा गया। इस शोध-पत्र के माध्यम से एक विभिन्न विधा की माँग की। इसी माँग के आधार पर गिडेन-टूरी ने सन १९९५ में एक 'नक्शा' अपने लेख, 'डिस्क्रिप्टिव ट्रांस्लेशन स्टडीज़' में रेखांकित करा। सन १९९० से पूर्व अनुवाद के विद्वान एक विशेष विषय के मत से आते थे - खास तौर पर तब जब अनुवाद की प्रक्रिया निहायती वर्णनात्मक व निर्धारित थी, तथा 'स्कोपोज़' तक सीमित थी। परंतु १९९० के सांस्कृतिक मोड़ के उपरांत, यह विधा शोध के विभिन्न आयामों में बंट चुकी है।
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'''समतुल्यता का सिद्धांत'''
 
सन १९५० से १९६० के बीच अनुवाद अध्ययन में चर्चा बस यहीं तक सीमित थी की दो भाषाओं के बीच समतुल्यता कैसे स्थापित की जाए। 'समतुल्य' शब्द के दो अर्थ हैं। रूसी परंपरा के अनुसार समतुल्यत का अर्थ है द्वि-भषाई शब्दों के अर्थ का समरूपी होना। वहीं फ्रेंच परंपरा में विनय एवं डॉर्ब्लनेट के अनुसार सम्तुल्यता का अर्थ है द्वि-भाषाई शब्दों के बीच एक ही कर्यात्मककार्यात्मक प्रभाव होना। फ़्रेंच परंपरा के अन्तरगतantargat यदि भाषाओं के प्रारूप में यदि कोइ भिन्नता भी आ जाए, तो भी कोई बड़ी बात नहीं हो जाती है।
 
'''वर्णनात्मक अनुवाद अध्ययन'''
 
'वर्णनात्मक अनुवाद अध्ययन' नामक व्याक्यांश टूरी द्वारा रचित पुस्तक, 'डिस्क्रिप्टिव ट्रांस्लेशन स्ट्डीज़ एण्ड बियॉण्ड' से लिया गया है। इस अध्ययन का लक्ष्य एक आनुभविक वर्णनात्मक विधा को विकसित करना है जो हॉल्म्स द्वारा दिये गये नक्षे के एक पहलू को पूरा कर सके। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में रूसी रूपवादों ने इस विचार की संरक्षणा करी की वैज्नानिकवैज्ञानिक कार्य-प्रणाली भी सांस्क्रितिक गतिविधियों पर लागू हो सकती है। यही विचार धारा अब साहित्यिक अनुवादों पर भी लागू होने लगी। इस विचार धारा का अग्रिम रूप इवैन-ज़ोहार द्वारा सन १९९० में दी गयी 'बहु-प्रणाली' के सिद्धांत में देखी गयी। इस सिद्धांत के अन्तर्गत अनुवादित साहित्य, प्रायोजित साहित्यिक प्रणाली के उप-तंत्र के रूप में देखा जाता है।
 
गिडन-टूरी ने अपने सिद्धांत का आधार भी इस विचार धारा को बनाया की अनुसन्धान हेतु अनुवाद को <nowiki>''</nowiki>प्रायोजित सन्स्क्रिति के तथ्यों के रूप में देखा जाए"। साहित्यिक अनुवादों के तहत ही 'छलयोजना' व 'संरक्षण' जैसे सिद्धान्तों को विकसित किया गया।
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'''सांस्कृतिक अनुवाद'''
 
अनुवाद की विधा के विकास में सांस्कृतिक अनुवाद ने बड़ा योगदान करा। इस सिद्धान्त का चित्रण सूसन बैस्नेट व एण्ड्र्यु लेफ़ेवर ने अपनी पुस्तक,'ट्रांस्लेशन-हिस्ट्री-कल्चर' में किया। सांस्कृतिक अनुवाद के सिद्धान्त की उत्पत्तीउत्पत्ति होमी के भाभा की पुस्त्कपुस्तक, 'द लोकेशन ऑफ कल्चर' से हुई है। सांस्कृतिक अनुवाद का सिद्धान्त बदलाव की प्रक्रिया पर प्रकाश डालती है (भाषा या अन्य) जो एक विशिष्ट सांस्कृतिक वातावरण में पनपती है। यह सिद्धांत भाषाई अनुवादों के ज़रिये इन सांस्कृतिक बदलावों को समझने की चेष्टा करती है।
 
'''अनुवाद के क्षेत्र में निरीक्षण'''