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[[जरासंघ]] का वध करके श्री कृष्ण, [[अर्जुन]] और [[भीम]] इन्द्रप्रस्थ लौट आये एवं धर्मराज [[युधिष्ठिर]] से सारा वृत्तांत कहा जिसे सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुये। तत्पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने [[राजसूय यज्ञ]] की तैयारी शुरू करवा दी। उस यज्ञ के ऋतिज आचार्य होता थे।
 
यज्ञ को सफल बनाने के लिये वहाँ पर भारतवर्ष के समस्त बड़े-बड़े ऋषि महर्षि - भगवान [[वेद व्यास]], [[भारद्वाज]], [[सुनत्तु]], [[गौतम]], [[असित]], [[वशिष्ठ]], [[च्यवन]], [[कण्डव]], [[मैत्रेय]], [[कवष]], [[जित]], [[विश्वामित्र]], [[वामदेव]], [[सुमति]], [[जैमिन]], [[क्रतु]], [[पैल]], [[पाराशर]], [[गर्ग]], [[वैशम्पायन]], [[अथर्वा]], [[कश्यप]], [[धौम्य]], [[परशुराम]], [[शुक्राचार्य]], [[आसुरि]], [[वीतहोत्र]], [[मधुद्वन्दा]], [[वीरसेन]], [[अकृतब्रण]] आदि - उपस्थित थे। सभी देशों के राजाधिराज भी वहाँ पधारे।
 
ऋतिजों ने शास्त्र विधि से यज्ञ-भूमि को सोने के हल से जुतवा कर धर्मराज युधिष्ठिर को दीक्षा दी। धर्मराज युधिष्ठिर ने सोमलता का रस निकालने के समय यज्ञ की भूल-चूक देखने वाले सद्पतियों की विधिवत पूजा की। अब समस्त सभासदों में इस विषय पर विचार होने लगा कि सब से पहले किस देवता की पूजा की जाये। तब सहदेव जी उठ कर बोले -
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अग्र तिलक यदुपति को दीजै, सब मिलि पूजन उनको कीजै।"
 
परमज्ञानी [[सहदेव]] जी के वचन सुनकर सभी सत्पुरुषों ने साधु! साधु! कह कर पुकारा। [[भीष्म]] पितामह ने स्वयं अनुमोदन करते हुये सहदेव के कथन की प्रशंसा की। तब धर्मराज [[युधिष्ठिर]] ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्री कृष्ण का पूजन आरम्भ किया। चेदिराज [[शिशुपाल]] अपने आसन पर बैठा हुआ यह सब दृश्य देख रहा था। सहदेव के द्वारा प्रस्तावित तथा भीष्म के द्वारा समर्थित श्री कृष्ण की अग्र पूजा को वह सहन न कर सका और उसका हृदय क्रोध से भर उठा। वह उठ कर खड़ा हो गया और बोला, "हे सभासदों! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कालवश सभी की मति मारी गई है। क्या इस बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति इस सभा में नहीं है जो इस बालक की हाँ में हाँ मिला कर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार कर ली गई है? क्या इस कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में कोई भी बड़ा नहीं है? बड़े-बड़े त्रिकालदर्शी ऋषि-महर्षि यहा पधारे हुये हैं। बड़े-बड़े राजा-महाराजा यहाँ पर उपस्थित हैं। क्या इस गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहाँ नहीं है? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता है? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता है? न इसका कोई कुल है न जाति, न ही इसका कोई वर्ण है। राजा [[ययाति]] के शाप के कारण राजवंशियों ने इस यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा है। यह जरासंघ के डर से मथुरा त्याग कर समुद्र में जा छिपा था। भला यह किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी है? इस प्रकार शिशुपाल जगत के स्वामी श्री कृष्ण को गाली देने लगा। उसके इन कटु वचनों की निन्दा करते हुये अर्जुन और भीमसेन अनेक राजाओं के साथ उसे मारने के लिये उद्यत हो गये किन्तु श्री कृष्णचन्द्र ने उन सभी को रोक दिया। श्री कृष्ण के अनेक भक्त सभा छोड़ कर चले गये क्योंकि वे श्री कृष्ण की निन्दा नहीं सुन सकते थे।
 
जब शिशुपाल श्री कृष्ण को एक सौ गाली दे चुका तब श्री कृष्ण ने गरज कर कहा, "बस शिशुपाल! अब मेरे विषय में तेरे मुख से एक भी अपशब्द निकला तो तेरे प्राण नहीं बचेंगे। मैंने तेरे एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी इसी लिये अब तक तेरे प्राण बचे रहे।" श्री कृष्ण के इन वचनों को सुन कर सभा में उपस्थित शिशुपाल के सारे समर्थक भय से थर्रा गये किन्तु शिशुपाल का विनाश समीप था। अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुये श्री कृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही श्री कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कट कर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकल कर भगवान श्री कृष्णचन्द्र के भीतर समा गया और वह पापी शिशुपाल, जो तीन जन्मों से भगवान से बैर भाव रखते आ रहा था, परमगति को प्राप्त हो गया। यह भगवान विष्णु का वही द्वारपाल था जिसे कि [[सनकादि]] मुनियों ने शाप दिया था। वे जय और विजय अपने पहले जन्म में [[हिरण्यकश्यपु]] और [[हिरण्याक्ष]], दूसरे जन्म में [[रावण]] और [[कुम्भकर्ण]] तथा अंतिम तीसरे जन्म में [[कंस]] और [[शिशुपाल]] बने एवं श्री कृष्ण के हाथों अपने परमगति को प्राप्त होकर पुनः विष्णुलोक लौट गये।
==स्रोत==
[http://sukhsagarse.blogspot.com सुखसागर] के सौजन्य से