"शुनःशेप": अवतरणों में अंतर

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==शुनःशेपाख्यान का सन्देश==
[[भारतीय]] संस्कृति में पैदा हुए किसी भी मनुष्य का मन यावत् जीवन त्रिविध एषणाओं से बद्ध – सुबद्ध – रहता है। यह एक निर्विवाद हकीकत है। ये तीन एषणाओं का नाम है – 1. पुत्रैषणा, 2. वित्तैषणा और 3. लोकैषणा। इन तीनों में से जो वितैषणा है, वह मनुष्य-जीवन के व्यावहारिक जीवन से नाता रखती है। और जो लोकैषणा है, वह पूर्वमीमांसा-प्रोक्त यज्ञयागादि से प्राप्त होनेवाले स्वर्गलोक आदि मरणोत्तर लोक से सम्बन्ध रखती है। परन्तु जो पुत्रैषणा है, वह मनुष्यमात्र की पृथिवीलोक पर सदैव बने रहने की शाश्वत एवं सार्वभौम इच्छा का अकाट्य अंकुर है। और ऐसी पुत्रैषणा में पुत्र एवं पुत्री दोनों अभीष्ट है – यह बात तार्किक रूप से निहित है। लेकिन स्त्रीदेह की प्राकृतिक मर्यादाओं के कारण, स्त्रीदेह की अपेक्षा पुरुषदेह सबल होने के कारण समाज में पुरुष का महत्त्व बढता गया है और विश्व में बहुशः समाज पुरुषप्रधान आकारित होता रहा है। अतः मनुष्यमात्र के मन में पुत्रैषणा जड़ीभूत हो गई है। अतः ऐतरेयब्राह्मण में आयी हुई शुनःशेप की जो कथा है वह पुत्रैषणा-ग्रस्त जनमानस को अतीव सूचक रूप से मार्गदर्शक बनती है।।
 
यद्यपि शुनःशेप की कथा को अद्यावधि दूसरे ही परिप्रेक्ष्य में देखी जाती है। जैसे कि – वेदकाल में नरमेध याग होते थे या नहीं। शुनःशेपाख्यान में वरुणदेवता को कोई मनुष्य का बलि चढाने की बात आती है, इस लिये दुनिया भर के विद्वानों ने एक ही बात को चर्चा का बिन्दु बनाया है कि वैदिक यज्ञ-यागादि में पशुबलि के साथ साथ मनुष्यों का भी बलि चढाया जाता था कि नहीं। - परन्तु इस आख्यान में अन्ततोगत्वा कोई भी मनुष्य का बलि तो नहीं चढाया जाता है। इस के कारण पुनर्विचार की नितान्त आवश्यकता है॥