"मराठी साहित्य": अवतरणों में अंतर

→‎ज्ञानदेव तथा नामदेव: यह ज्ञानेश्वर नहीं है
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17वीं शती में तुकाराम तथा [[समर्थ रामदास|रामदास]] ने एक ही समय धर्मजागृति का व्यापक कार्य किया। ज्ञानदेवादि [[वारकरी संप्रदाय]] के अधिकारियों द्वारा निर्मित धर्ममंदिर पर तुकाराम के कार्य ने मानों कलश बैठाया। पोथी पंडितों के अनुभवशून्य वक्तव्यों तथा कर्मकांड के नाम पर दिखलाए जानेवाले ढोंग का भंडाफोड़ करने में तुकाराम की वाणी को अद्भूत ओज प्राप्त हुआ। फिर भी जिस साधक अवस्था से उन्हें जाना पड़ा उसका उनके द्वारा किया हुआ वर्णन काव्य का उत्कृष्ट नमूना है।
 
रामदास का साहित्य परमार्थ के साथ साथ प्रापंचिक सावधानता का तथा समाजसंघटन का उपांग है। [[छत्रपति शिवाजी]] महाराज केहै।के गुरु होने के कारण उनके चरित्र की उज्वलता बढ़ गई। फिर भी उनके द्वारा प्रयत्नवाद, लोकसंग्रह, दुष्टों के दलन इत्यादि के संबंध में दिए गए बोध के कारण उन्हें स्वयं ही वैशिष्ट्य प्राप्त हुआ है। दासबोध, मनाचे श्लोक, करुणाष्टक आदि उनके ग्रंथ परमार्थ के विचार से परिपूर्ण हैं। उनके कतिपय अध्यायों के विषय राजनीतिक विचारों से प्रभावित हैं।
 
तुकाराम रामदास के कालखंड में वामन पंडित, रघुनाथ पंडित, सामराज, नागेश, तथा विट्ठल आदि शिवकालीन आख्यानकर्ता कवियों की एक लंबी पंरपरा हो गई। शब्दचमत्कार, अर्थचमत्कार, नाद माधुर्य और वृत्तवैचिय इत्यादि इन आख्यानों की विशेषताएँ हैं। वामन नामक पंडित की यथार्थदीपिका गीताटीका उनकी विद्वत्ता के कारण अर्थगंभीर व तत्त्वांगप्रचुर हो गई है। स्वप्न में तुकाराम का उपदेश प्राप्त कर लेनेवाले महीपति प्राचीन मराठी के विख्यात संत चरित्रकार हो गए हैं। कृष्णदयार्णव का "हरिवरदां" तथा श्रीधर कवि के हरिविजय, रामविजय, आदि ग्रंथ सुबोध व रसपूर्ण होने के कारण आबाल वृद्धों को बहुत पंसद आए। इन परमार्थप्रवृत्त पंडितों की परंपरा में मोरोपंत का विशिष्ट स्थान है। इनके रचित आर्या भारत, 108 रामायण तथा सैकड़ों फुटकर काव्यरचनाएँ भाषाप्रभुत्व एवं सुरस वर्णनशैली के कारण विद्वन्मान्य हुई हैं।