"रामायण": अवतरणों में अंतर

[अनिरीक्षित अवतरण][पुनरीक्षित अवतरण]
छो 2405:204:C684:18B5:D47F:11E1:E4D5:A99E (Talk) के संपादनों को हटाकर 2405:204:C10B:8683:0:0:1C9:B8A4 के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया
टैग: वापस लिया
Godric ki Kothri द्वारा सम्पादित संस्करण 3985949 पर पूर्ववत किया: स्रोतहीन संपादन। (ट्विंकल)
टैग: किए हुए कार्य को पूर्ववत करना
पंक्ति 53:
कुछ काल के पश्चात [[राम]] ने [[चित्रकूट]] से प्रयाण किया तथा वे [[अत्रि]] ऋषि के आश्रम पहुँचे। [[अत्रि]] ने [[राम]] की स्तुति की और उनकी पत्नी [[अनसूया]] ने [[सीता]] को [[पातिव्रत धर्म]] के मर्म समझाये। वहाँ से फिर [[राम]] ने आगे प्रस्थान किया और [[शरभंग]] मुनि से भेंट की। [[शरभंग]] मुनि केवल [[राम]] के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः [[राम]] के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और [[ब्रह्मलोक]] को गमन किया। और आगे बढ़ने पर [[राम]] को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने [[राम]] को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर [[राम]] ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को [[राक्षस]] विहीन कर देंगे। [[राम]] और आगे बढ़े और पथ में [[सुतीक्ष्ण]], [[अगस्त्य]] आदि ऋषियों से भेंट करते हुये [[दण्डक वन]] में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात [[जटायु]] से हुई। [[राम]] ने [[पंचवटी]] को अपना निवास स्थान बनाया।
[[चित्र:Ravi Varma-Ravana Sita Jathayu.jpg|thumb|left|300px|सीता हरण (चित्रकार: [[रवि वर्मा]])]]
[[पंचवटी]] में [[रावण]] की बहन [[शूर्पणखा]] ने आकर [[राम]] से प्रणय निवेदन-किया। [[राम]] ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे [[लक्ष्मण]] के पास भेज दिया। [[लक्ष्मण]] ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। [[शूर्पणखा]] ने [[खर-दूषण]] से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में [[राम]] ने [[खर-दूषण]] और उसकी सेना का संहार कर डाला।<ref>‘वाल्मीकीय रामायण’, प्रकाशक: देहाती पुस्तक भंडार, दिल्ली पृष्ठ 251-263</ref> [[शूर्पणखा]] ने जाकर अपने भाई [[रावण]] से शिकायत की। [[रावण]] ने बदला लेने के लिये [[मारीच]] को [[स्वर्णमृग]] बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग [[सीता]] ने राम से की। [[लक्ष्मण]] को [[सीता]] के रक्षा की आज्ञा दे कर [[राम]] [[स्वर्णमृग]] रूपी [[मारीच]] को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। [[मारीच]] राम के हाथों मारा गया पर मरते मरते [[मारीच]] ने [[राम]] की आवाज बना कर ‘हा [[लक्ष्मण]]’ का क्रन्दन किया जिसे सुन कर [[सीता]] ने आशंकावश होकर [[लक्ष्मण]] को [[राम]] के पास भेज दिया। [[लक्ष्मण]] के जाने के बाद अकेली [[सीता]] का [[रावण]] ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ [[लंका]] ले गया। रास्ते में [[जटायु]] ने [[सीता]] को बचाने के लिये [[रावण]] से युद्ध किया और [[रावण]] ने उसके पंख काटकर उसे अधमरा कर दिया।<ref>‘रामचरितमानस’, टीकाकार: हनुमानप्रसाद पोद्दार, प्रकाशक एवं मुद्रक: गीताप्रेस, गोरखपुर पृष्ठ 603-606</ref>
 
[[सीता]] को न पा कर [[राम]] अत्यन्त दुःखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में [[जटायु]] से भेंट होने पर उसने [[राम]] को [[रावण]] के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व [[सीता]] को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद [[जटायु]] ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अन्तिम संस्कार करके [[सीता]] की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में [[राम]] ने [[दुर्वासा]] के शाप के कारण [[राक्षस]] बने [[गन्धर्व]] [[कबन्ध]] का वध करके उसका उद्धार किया और [[शबरी]] के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये झूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया। इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये।