"अभिधम्म साहित्य": अवतरणों में अंतर

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[[महात्मा बुद्ध|बुद्ध]] के [[निर्वाण]] के बाद उनके शिष्यों ने उनके उपदिष्ट 'धर्म' और 'विनय' का संग्रह कर लिया। [[अट्टकथा]] की एक परंपरापरम्परा से पता चलता है कि 'धर्म' से [[दीघनिकाय]] आदि चार निकायग्रंथनिकायग्रन्थ समझे जाते थे; और धम्मपद सुत्तनिपात आदि छोटे-छोटे ग्रंथों का एक अलग संग्रह बना दिया गया, जिसे 'अभिधर्म' (अतिरिक्त धर्म) कहते थे। जब धम्मसंगणि आदि जैसे विशिष्ट ग्रंथों का भी समावेश इसी संग्रह में हुआ (जो अतिरिक्त छोटे ग्रंथों से अत्यंत भिन्न प्रकार के थे), तब उनका अपना एक स्वतंत्र पिटक- '[[अभिधर्मपिटक]]' बना दिया गया और उन अतिरिक्त छोटे ग्रंथों के संग्रह का '[[खुद्दक निकाय]]' के नाम से पाँचवाँ निकाय बना।
 
'अभिधम्मपिटक' में सात ग्रंथ हैं-
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विद्वानों में इनकी रचना के काल के विषय में मतभेद है। प्रारंभिक समय में स्वयं भिक्षुसंघ में इसपर विवाद चलता था कि क्या अभिधम्मपिटक बुद्धवचन है।
 
पाँचवें ग्रंथ कथावत्थु की रचना [[अशोक]] के गुरु [[मोग्गलिपुत्त तिस्स]] ने की, जिसमें उन्होंने संघ के अंतर्गत उत्पन्न हो गई मिथ्या धारणाओं का निराकण किया। बाद के आचार्यों ने इसे '[[अभिधम्मपिटक]]' में संगृहीत कर इसे बुद्धवचन का गौरव प्रदान किया।
 
शेष छह ग्रंथों में प्रतिपादन विषय समान हैं। पहले ग्रंथ धम्मसंगणि में अभिधर्म के सारे मूलभूत सिद्धांतों का संकलन कर दिया गया है। अन्य ग्रंथों में विभिन्न शैलियों से उन्हीं का स्पष्टीकरण किया गया है।
 
== सिद्धान्त ==
== सिद्धांत ==
तेल, बत्ती से प्रदीप्त दीपशिखा की भाँति तृष्णा, अहंकार के ऊपर प्राणी का चित्त (उमन=मन उविज्ञान=विज्ञान उकांशसनेस=कांशसनेस) जाराशील प्रवाहित हो रहा हे। इसी में उसका व्यक्तित्व निहित है। इसके परे कोई 'एक तत्व' नहीं है।
 
सारी अनुभूतियाँ उत्पन्न हो संस्काररूप से चित्त के निचले स्तर में काम करने लगती हैं। इस स्तर की धारा को 'भवंग' कहते हैं, जो किसी योनि के एक प्राणी के व्यक्तित्व का रूप होता है। पाश्चात्य मनोविज्ञान के 'सबकांशस' की कल्पना से 'भवंग' का साम्य है। लोभ-द्वेष-मोह की प्रबलता से 'भवंग' की धारा पाशविक और त्याग--प्रेम--ज्ञान के प्राबलय से वह मानवी (और दैवी भी) हो जाती है। इन्हीं की विभिन्नता के आधार पर संसार के प्राणियों की विभिन्न योनियाँ हैं। एक ही योनि के अनेक व्यक्तियों के स्वभाव में जो विभिन्नता देखी जाती है उसका भी कारण इन्हीं के प्राबल्य की विभिन्नता है।
 
जब तक तृष्णा, अहंकार बना है, चित्त की धारा जन्म जन्मांतरोंजन्मान्तरों में अविच्छिन्न प्रवाहित होती रहती है। जब योगी समाधि में वस्तुसत्ता के अनित्य-अनात्म-दु:खस्वरूपदुःखस्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है, तब उसकी तृष्णा का अंत हो जाता है। वह [[अर्हत्‌]] हो जाता है। शरीरपात के उपरांतउपरान्त बुझ गई दीपशिखा की भाँति वह निवृत्त हो जाता है।
 
==इन्हें भी देखें==
*[[अभिधम्मसमुच्चय]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==