"हिन्दी साहित्य का इतिहास": अवतरणों में अंतर

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नये युग के साहित्यसृजन की सर्वोच्च संभावनाएँ [[खड़ी बोली]] गद्य में निहित थीं, इसलिए इसे गद्य-युग भी कहा गया है। हिन्दी का प्राचीन गद्य [[राजस्थानी]], [[मैथिली]] और [[ब्रजभाषा]] में मिलता है पर वह साहित्य का व्यापक माध्यम बनने में अशक्त था। खड़ीबोली की परंपरा प्राचीन है। [[अमीर खुसरो]] से लेकर मध्यकालीन [[भूषण (हिन्दी कवि)|भूषण]] तक के काव्य में इसके उदाहरण बिखरे पड़े हैं। खड़ी बोली गद्य के भी पुराने नमूने मिले हैं। इस तरह का बहुत सा गद्य [[फारसी]] और [[गुरुमुखी लिपि]] में लिखा गया है। दक्षिण की मुसलमान रियासतों में "[[दक्खिनी]]' के नाम से इसका विकास हुआ। अठारहवीं सदी में लिखा गया [[रामप्रसाद निरंजनी]] और [[दौलतराम]] का गद्य उपलब्ध है। पर नयी युगचेतना के संवाहक रूप में हिन्दी के खड़ी बोली गद्य का व्यापक प्रसार उन्नीसवीं सदी से ही हुआ। [[कोलकाता|कलकत्ते]] के [[फोर्ट विलियम कालेज]] में, नवागत अँगरेज अफसरों के उपयोग के लिए, [[लल्लू लाल]] तथा [[सदल मिश्र]] ने गद्य की पुस्तकें लिखकर हिन्दी के खड़ी बोली गद्य की पूर्वपरंपरा के विकास में कुछ सहायता दी। [[मुंशी सदासुखलाल]] और [[इंशा अल्ला खाँ]] की गद्य रचनाएँ इसी समय लिखी गई। आगे चलकर प्रेस, पत्रपत्रिकाओं, ईसाई धर्मप्रचारकों तथा नवीन शिक्षा संस्थाओं से हिन्दी गद्य के विकास में सहायता मिली। [[बंगाल]], [[पंजाब]], [[गुजरात]] आदि विभिन्न प्रान्तों के निवासियों ने भी इसकी उन्नति और प्रसार में योग दिया। हिन्दी का पहला समाचारपत्र "[[उदन्त मार्तण्ड|उदंत मार्तण्ड]]' १८२६ ई. में कलकत्ते से प्रकाशित हुआ। [[राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिन्द'|राजा शिवप्रसाद]] और [[राजा लक्ष्मण सिंह]] हिन्दी गद्य के निर्माण और प्रसार में अपने अपने ढंग से सहायक हुए। [[आर्यसमाज]] और अन्य सांस्कृतिक आंदोलनों ने भी आधुनिक गद्य को आगे बढ़ाया।
 
गद्यसाहित्य की विकासमान परंपरा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से अग्रसर हुई। इसके प्रवर्तक आधुनिक युग के प्रवर्तक और पथप्रदर्शक '''[[भारतेंदु हरिश्चंद्र]]''' थे जिन्होंने साहित्य का समकालीन जीवन से घनिष्ठ संबंध स्थापित किया। यह संक्रांति और नवजागरण का युग था। अँगरेजों की कूटनीतिक चालों और आर्थिक शोषण से जनता संत्रस्त और क्षुब्ध थी। समाज का एक वर्ग पाश्चात्य संस्कारों से आक्रांत हो रहा था तो दूसरा वर्ग रूढ़ियों में जकड़ा हुआ था। इसी समय नई शिक्षा का आरंभ हुआ और सामाजिक सुधार के आंदोलन चले। नवीन ज्ञान विज्ञान के प्रभाव से नवशिक्षितों में जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ जो अतीत की अपेक्षा वर्तमान और भविष्य की ओर विशेष उन्मुख था। सामाजिक विकास में उत्पन्न आस्था और जाग्रत समुदायचेतना ने भारतीयों में जीवन के प्रति नया उत्साह उत्पन्न किया। भारतेंदु के समकालीन साहित्य में विशेषत: गद्यसाहित्य में तत्कालीन वैचारिक और भौतिक परिवेश की विभिन्न अवस्थाओं की स्पष्ट और जीवन्त अभिव्यक्ति हुई। इस युग की नवीन रचनाएँ [[देशभक्ति]] और समाजसुधार की भावना से परिपूर्ण हैं। अनेक नई परिस्थितियों की टकराहट से राजनीतिक और सामाजिक व्यंग की प्रवृत्ति भी उद्बुद्ध हुई। इस समय के गद्य में बोलचाल की सजीवता है। लेखकों के व्यक्तित्व से संपृक्त होने के कारण उसमें पर्याप्त रोचकता आ गई है। सबसे अधिक [[निबंध]] लिखे गए जो व्यक्तिप्रधान और विचारप्रधान तथा वर्णनात्मक भी थे। अनेक शैलियों में कथासाहित्य भी लिखा गया, अधिकतर शिक्षाप्रधान। पर यथार्थवादी दृष्टि और नए शिल्प की विशिष्टता [[श्रीनिवास दास]] के "[[परीक्षागुरु]]' में ही है। [[देवकीनन्दन खत्री का तिलस्मी उपन्यास '[[चंद्रकांता]]' इसी समय प्रकाशित हुआ। पर्याप्त परिमाण में नाटकों और सामाजिक प्रहसनों की रचना हुई। [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र|भारतेंदु]], [[प्रतापनारायण मिश्र]], श्रीनिवास दास, आदि प्रमुख नाटककार हैं। साथ ही भक्ति और शृंगार की बहुत सी सरस कविताएँ भी निर्मित हुई। पर जिन कविताओं में सामाजिक भावों की अभिव्यक्ति हुई वे ही नये युग की सृजनशीलता का आरंभिक आभास देती हैं। खड़ी बोली के छिटफुट प्रयोगों को छोड़ शेष कविताएँ ब्रजभाषा में लिखी गयीं। वास्तव में नया युग इस समय के गद्य में ही अधिक प्रतिफलित हो सका।सका।uyghjguj
 
==== बीसवीं शताब्दी ====