"भारतीय कला": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Bodhi Ajanta.jpg|right|thumb|200px|[[अजन्ता]] गुफा में चित्रित '''बोधि''']]
[[चित्र:Uttar Pradesh Apsara.jpg|right|thumb|200px|[[नृत्य]] करती हुई [[अप्सरा]] (१२वीं शताब्दी)]]
[[चित्र:Mughal painting2.jpg|right|thumb|250px|भारतीय कला का एक नमूना - '''[[बनीठनी]]''' ; [[किशनगढ़]], [[जयपुर]], [[राजस्थान]]]]
[[कला]], [[संस्कृति]] की वाहिका है। [[भारतीय संस्कृति]] के विविध आयामों में व्याप्त मानवीय एवं रसात्मक तत्व उसके कला-रूपों में प्रकट हुए हैं। कला का प्राण है रसात्मकता। [[रस]] अथवा आनन्द अथवा आस्वाद्य हमें स्थूल से चेतन सत्ता तक एकरूप कर देता है। मानवीय संबन्धों और स्थितियों की विविध भावलीलाओं और उसके माध्यम से चेतना को कला उजागार करती है। अस्तु चेतना का मूल ‘रस’ है। वही आस्वाद्य एवं आनन्द है, जिसे कला उद्घाटित करती है। भारतीय कला जहाँ एक ओर वैज्ञानिक और तकनीकी आधार रखती है, वहीं दूसरी ओर भाव एवं रस को सदैव प्राणतत्वण बनाकर रखती है। '''भारतीय कला''' को जानने के लिये [[उपवेद]], [[शास्त्र]], [[पुराण]] और [[पुरातत्त्व]] और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पड़ता है।