"रामचन्द्र शुक्ल": अवतरणों में अंतर

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अध्ययन के प्रति लग्नशीलता शुक्ल जी में बाल्यकाल से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण न मिल सका। मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से १९०१ में स्कूल फाइनल परीक्षा (FA) उत्तीर्ण की। उनके पिता की इच्छा थी कि शुक्ल जी कचहरी में जाकर दफ्तर का काम सीखें, किंतु शुक्ल जी उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। पिता जी ने उन्हें वकालत पढ़ने के लिए [[इलाहाबाद]] भेजा पर उनकी रुचि वकालत में न होकर [[हिंदी साहित्य|साहित्य]] में थी। अतः परिणाम यह हुआ कि वे उसमें अनुत्तीर्ण रहे। शुक्ल जी के पिताजी ने उन्हें नायब तहसीलदारी की जगह दिलाने का प्रयास किया, किंतु उनकी स्वाभिमानी प्रकृति के कारण यह संभव न हो सका।<ref>[http://thatshindi.oneindia.in/news/2008/09/04/2008090454626300.html आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर पुस्तक का लोकार्पण] दैट्स हिन्दी पर</ref>
 
१९०३ से १९०८ तक 'आनन्द कादम्बिनी' के सहायक संपादक का कार्य किया। १९०४ से १९०८ तक लंदन मिशन स्कूल में ड्राइंग के अध्यापक रहे। इसी समय से उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे और धीरे-धीरे उनकी विद्वता का यश चारों ओर फैल गया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर १९०८ में [[काशी]] [[नागरी प्रचारिणी सभा]] ने उन्हें [[हिन्दी शब्दसागर]] के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। [[श्यामसुन्दरदास]] के शब्दों में 'शब्दसागर की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश श्रेय पं।पं. [[रामचंद्र शुक्ल]] को प्राप्त है। वे [[नागरी प्रचारिणी पत्रिका]] के भी संपादक रहे। १९१९ में [[काशी हिंदू विश्वविद्यालय]] में हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए जहाँ [[बाबू श्याम सुंदर दास]] की मृत्यु के बाद १९३७ से जीवन के अंतिम काल (१९४१) तक विभागाध्यक्ष का पद सुशोभित किया।
 
[[२ फरवरी]], सन् [[१९४१]] को हृदय की गति रुक जाने से शुक्ल जी का देहांत हो गया।