"चार्वाक दर्शन": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
छो 2401:4900:16D2:309E:BF91:2C9C:B6A4:D89A (Talk) के संपादनों को हटाकर संजीव कुमार के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया टैग: वापस लिया |
No edit summary टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन |
||
पंक्ति 7:
== परिचय ==
चार्वाक का नाम सुनते ही आपको ‘यदा जीवेत सुखं जीवेत,
[[सर्वदर्शनसंग्रह]] में चार्वाक का मत दिया हुआ मिलता है। [[पद्मपुराण]] में लिखा है कि असुरों को बहकाने के लिये बृहस्पति ने वेदविरुद्ध मत प्रकट किया था। नास्तिक मत के संबध में [[विष्णुपुराण]] में लिखा है कि जब धर्मबल से दैत्य बहुत प्रबल हुए तब देवताओं ने [[विष्णु]] के यहाँ पुकार की। विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह नामक एक पुरुष उत्पन्न किया जिसने [[नर्मदा]] तट पर दिगबंर रूप में जाकर तप करते हुए असुरों को बहकाकर धर्ममार्ग में भ्रष्ट किया। मायामोह ने असुरों को जो उपदेश किया वह सर्वदर्शनसंग्रह में दिए हुए चार्वाक मत के श्लोकों से बिलकुल मिलता है। जैसे, - मायामोह ने कहा है कि यदि यज्ञ में मारा हुआ पशु [[स्वर्ग]] जाता है तो यजमान अपने पिता को क्यों नहीं मार डालता, इत्यादि। [[लिंगपुराण]] में त्रिपुरविनाश के प्रसंग में भी शिवप्रेरित एक दिगंबर मुनि द्वारा असुरों के इसी प्रकार बहकाए जाने की कथा लिखी है जिसका लक्ष्य [[जैन धर्म|जैनों]] पर जान पड़ता है। [[वाल्मीकि रामायण]] अयोध्या कांडमें महर्षि जावालि ने रामचंद्र को बनबास छोड़ अयोध्या लौट जाने के लिये जो उपदेश दिया है वह भी चार्वाक के मत से बिलकुल मिलता है। इन सब बातों से सिद्ध होता है कि नास्तिक मत बहुत प्राचीन है। इसका अविर्भाव उसी समय में समझना चाहिए जव वैदिक कर्मकांड़ों की अधिकता लोगों को कुछ खटकने लगी थी।
|