"गुरु-शिष्य परम्परा": अवतरणों में अंतर

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[[File:Raja Ravi Varma - Sankaracharya.jpg|thumb|right|300px| राजा रवि वर्मा द्वारा 1904 में बनाया हुआ - शिष्यों के साथ [[आदि शंकराचार्य]]]]
'''[[गुरु]]-शिष्य परम्परा''' आध्यात्मिक प्रज्ञा का नई पीढ़ियों तक पहुंचाने का सोपान।
[[भारतीय संस्कृति]] में '''गुरु-शिष्य परम्परा''' के अन्तर्गत गुरु (शिक्षक) अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है। बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है। यही क्रम चलता जाता है। यह परम्परा सनातन धर्म की सभी धाराओं में मिलती है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा [[ज्ञान]] के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, जैसे- अध्यात्म, संगीत, कला, वेदाध्ययन, वास्तु आदि। भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व है।<ref>{{Cite web|url=https://hindimerijaan.com/shikshak-ka-mahatva-hindi/|title=गुरु का महत्व|last=हिंदी मेरी|first=जान|date=26/02/2019|website=Hindi Meri Jaan|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref> कहीं गुरु को 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' कहा गया है तो कहीं 'गोविन्द'। 'सिख' शब्द [[संस्कृत]] के 'शिष्य' से व्युत्पन्न है।
 
'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है। भारतीय संस्कृति में गुरु को अत्यधिक सम्मानित स्थान प्राप्त है। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के रूप में होने के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाली भी रही है। भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है.