"पुरोहित": अवतरणों में अंतर

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तात्विक एवं तार्किक कह सकते हैं कि आध्यात्मिक जगत में पुरोहित की आवश्यकता नहीं है। पुरोहित एक व्यवसाय जीवी व्यक्ति होता है जबकि आध्यात्मिकता सेव्य भाव होता है। यहाँ एक बात का ध्यान रखना होगा कि पौरोहित्य कभी भी व्यवसाय नहीं हो सकता है। पौरोहित्य कर्मकांड भी नहीं है। यह एक कर्म विज्ञान है। जो जागतिक एवं आध्यात्मिक जगत को सुखद एवं सुन्दर बनाने हेतु बनाया गया है।
उपरोक्त अध्ययन से पता चलता है कि समाज में पुरोहित पद को लेकर भ्रान्तियां है। पर हित में जीवन यापन करने वाला कभी भी व्यवसायी नहीं हो सकता है। पंडित एवं पंडों द्वारा पुरोहित पद को विकृत करके दिखाया गया है। इसका वास्तविक स्वरूप आज कही भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है । यह मात्र राजपुरोहित के पास ही सुरक्षित था।
राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में राजपुरोहित शब्द पर विचार करे तो एक जागीरदार का स्वरूप समक्ष आता है। राजपुरोहित का आधुनिक अर्थ ऐसे व्यक्ति से है, जिसके पास विप्र सा ज्ञान, क्षत्रिय सी बहादुरी, वैश्य सी कर्म दक्षता एवं शूद्र सा सेव्य भाव हो। सामाजिक अर्थनैतिक सिद्धांत इसके लिए सदविप्र शब्द का प्रयोग करता है। राजपुरोहित में यदि उपर्युक्त चारों गुण हैं तो वह सदविप्र की परिधि में आ सकता है। सदविप्र के लिए यम-नियम में प्रतिष्ठित एवं भूमा भाव का साधक होना आवश्यक है। भूमा भाव एवं यम-नियम समाज की आधारशीला है। समाज की रचना इसी आधारशीला पर होती है। समाज की सुदृढ़ता के लिए उपर्युक्त आधार होना आवश्यक है। एक राजपुरोहित का पुरोहितत्व आध्यात्मिक लक्ष्य एवं सामाजिक सोच के बिना संभव नहीं है। पर हित की साधना के लिए एक मजबूत इच्छा शक्ति की आवश्यकता है। जो भूमा भाव की साधना से प्राप्त होती हैं। इसलिए राजपुरोहित को आध्यात्मिक साधक के साथ सामाजिक कर्म कुशल होना आवश्यक है। और साथ में मेरा कहने का तात्पर्य यह भी है कि कुल पुरोहित के बिना कोई भी अनुष्ठान संपूर्ण नहीं होता है
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लेखक ➡ श्री करण सिंह शिवतलाव