"पुरोहित": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Satya7.jpg|thumb|पुरोहित : पुरोहित दो शब्दों से बना है:- 'पर' तथा 'हित', अर्थात ऐसा व्यक्ति जो दुसरो के कल्याण की चिंता करे। पुरोहित वह प्रधान याजक जो राजा या और किसी यजमान के यहाँ अगुआ बनकर यज्ञादि श्रौतकर्म, गृहकर्म और संस्कार तथा शांति आदि अनुष्ठान करे कराए। कर्मकांड करनेवाला, कृत्य करनेवाला ब्राह्मण। वैदिक काल में पुरोहित का बड़ा अधिकार था और वह मंत्रियों में गिना जाता था। पहले पुरोहित यज्ञादि के लिये नियुक्त किए जाते थे। आजकल वे कर्मकांड करने के अतिरिक्त, यजमान की और से देवपूजन आदि भी करते हैं, यद्यपि स्मृतियों में किसी की ओर से देवपूजन करनेवाले ब्राह्मण का स्थान बहुत नीचा कहा गया है। पुरोहित का पद कुलपरंपरागत चलता है। अतः विशेष कुलों के पुरोहित भी नियत रहते हैं। उस कुल में जो होगा वह अपना भाग लेगा, चाहे कृत्य कोई दूसरा ब्राह्मण ही क्यों न कराए। उच्च ब्राह्मणों में पुरोहित कुल अलग होते हैं जो यजमानों के यहाँ दान आदि लिया करते हैं।
कुलों के पुरोहित भी नियत रहते हैं। उस कुल में जो होगा वह अपना भाग लेगा, चाहे कृत्य कोई दूसरा ब्राह्मण ही क्यों न कराए। उच्च ब्राह्मणों में पुरोहित कुल अलग होते हैं जो यजमानों के यहाँ दान आदि लिया करते हैं।
 
वर्तमान में पुरोहित को छोटे शब्दों में प्रौत जी भी कहा जाता हैं...]]
 
[[श्रेणी:हिन्दू धर्म]]
 
करण सिंह शिवतलाव की कलम से
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राजपुरोहित शब्द की नूतन व्याख्या
🔴 व्याख्याकार ➡ करण सिंह शिवतलाव
राजपुरोहित एक जातिवाचक शब्द है। लेकिन इसका उदभव् पदवी के रुप में हुआ था। पुरोहित शब्द का प्रथम उल्लेख सिन्धु संस्कृति में एक पुरोहित राजा के रुप में मिलता है। इस पुरोहित राजा के क्या दायित्व था? इसके संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। सभ्यता में पुरोहित राजा की मर्यादा पर विचार कर, हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि पुरोहित राजा, बहुत बडा दायित्व धारणा किए हुआ था। एक शोध के अनुसार पुरोहित राजा यह सुनिश्चित करता था कि नगर के सभी जन ने निर्विघ्न भोजन कर दिया है तत्पश्चात वह स्वयं भोजन ग्रहण करता है। राजा की यह विशेषता अन्य किसी भी राजनयिक इतिहास में नहीं मिलती है। शोध का अन्य परिणाम यह प्राप्त हुआ है कि वर्ष में एक दिन वैशाखी पूर्णिमा के दिन नगर के समस्त जन अपनी चल एवं अचल संपत्ति पुरोहित राजा की चरणों में समर्पित करता था। पुरोहित राजा विधि विधान पूर्वक इस सम्पदा को सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता को अर्पित कर प्रसाद पर्यन्त उसके मालिक को पुनः लौटा देता था। संपत्ति का मालिक अयोग्य एवं अवैधानिक होने पर संपत्ति अन्य उचित पात्र को हस्तांतरित करने अधिकार रखता था। संपत्ति विहिन नागरिक को भी सामूहिक संपदा एवं समर्पित संपदा में से उचित भाग देने का विशेषाधिकार है। उस उत्तरदायित्व को निष्ठापूर्वक निवहन करने लिए पुरोहित राजा को अति विशिष्ट गुणों को धारण करना होता था। यह अति विशिष्ट गुण ही पुरोहित शब्द की व्याख्या का आधार बन सकता है।
पौरोहित्य कार्य करने वाले को पुरोहित कहा जाता है। पौरोहित्य को अलग - अलग विद्वानों ने अलग - अलग रुप में परिभाषित किया गया है। पौरोहित्य का वास्तविक अर्थ समष्टि एवं व्यष्टि के कल्याणार्थ, इहलोक व परलोक को सुन्दर से सुन्दरत्तम बनाने वाली विशुद्ध पद्धति का नाम है। इस उत्तरदायित्व को निवहन करने वाला स्वयं में एक सिद्ध हस्ताक्षर है। पौरोहित्य एक ऐसी पद्धति है जिस पर चल कर व्यक्ति इहलौकिक एवं परलौकिक जीवन को सफलीभूत कर सकता है। शेष जन पुरोहित के पास अपने जीवन को सुफल बनाने के लिए इस पद्धति का अनुसरण करने के लिए आते थे।
पुरोहित शब्द को कई व्याख्याकारों ने पर+हित के रुप में विश्लेषित किया है। इस व्याख्या में मूल अर्थ यथावत रहा है। लेकिन व्याकरणगत त्रुटि दोष रह जाता है। पुर + उ एवं हित शब्द का संयोग है। पुर का अर्थ नगर अथवा ग्राम पुरो का अर्थ नगरवासियों अथवा ग्रामवासियों है। हित का अर्थ कल्याणकारी होता है। प्राचीन काल में नगर राज्य एवं ग्राम राज्य की धारणा थी। उन सबके कल्याण अर्थात समग्र कल्याण की भावना का आदर्श स्वीकार कर, जो व्यक्ति इसे जीवन लक्ष्य बना चलता है। वह पुरोहित पदवी को धारण करता है।
अब राजपुरोहित शब्द पर विचार करते हैं। राज + पुरोहित को राजा का पुरोहित के रुप में व्याख्याकारों द्वारा विश्लेषित किया गया है। तत्पुरुष समास के अनुसार इस अर्थ में राजा प्रधान तथा पुरोहित गौण। राजा है इसलिए लिए पुरोहित है। लेकिन सनातन परंपरा के अनुसार विप्र प्रथम तथा क्षत्रिय द्वितीय होता है। इसलिए राजपुरोहित शब्द की दूसरी व्याख्या राज्य का पुरोहित भी हो सकती है। राज का एक अर्थ राज्य अथवा देश भी होता है। समस्त पुरों का समूह राज्य कहलाता था। इस अर्थ में समस्त राज्य के लोगों का हित साधने वाला राजपुरोहित हुआ। राजपुरोहित के इस अर्थ में पुरोहित शब्द का मूल अर्थ भी सुरक्षित रह जाता है।
विषय के अन्त में राजपुरोहित शब्द के नूतन व्याख्या पर आते हैं। जो आज से पूर्व कई भी उल्लेखित नहीं की गई है। राज माने रहस्य अर्थात रहस्य लोक, रूहानी मंजिल की ओर यात्रा करने वाला मार्ग। अन्य शब्द में आध्यात्मिक जगत से संबंधित ज्ञान -विज्ञान, कला-क्रिया इत्यादि क्षेत्र। आध्यात्मिक जगत का ज्ञाता, दक्ष एवं विज्ञ व्यक्तित्व को राजगुरू कहा जाता था। राजपुरोहित के संदर्भ में देखा जाए तो व्यक्ति को ब्रह्म तक पहुँचाने हेतु पौरोहित्य कर्म करने वाले व्यक्तित्व को राजपुरोहित नाम दिया गया है। अन्य शब्दों में कहा जाए तो नर से नारायण बनाने की कला में दक्ष व्यष्टि राजपुरोहित है। यहाँ प्रश्न यह है कि आध्यात्मिक जगत में पौरोहित्य कार्य नहीं होते हैं। यह प्रश्न सही है कि रूहानी मंजिल की ओर गमन करने वाले व्यक्ति के लिए कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती हैं, आध्यात्मिकता की प्रगति के सौपान प्राप्त करने के लिए साधना जगत के विभिन्न पाठों सिखाने वाले आचार्य का प्रायोजन्य है। यहां राज प्रधान है तथा पुरोहित गौण है। इसलिए आचार्य शब्द अधिक प्रचलित रहा है। राजपुरोहित अर्थात समग्र समाज का हित साधने वाला रहस्य से है।
तात्विक एवं तार्किक कह सकते हैं कि आध्यात्मिक जगत में पुरोहित की आवश्यकता नहीं है। पुरोहित एक व्यवसाय जीवी व्यक्ति होता है जबकि आध्यात्मिकता सेव्य भाव होता है। यहाँ एक बात का ध्यान रखना होगा कि पौरोहित्य कभी भी व्यवसाय नहीं हो सकता है। पौरोहित्य कर्मकांड भी नहीं है। यह एक कर्म विज्ञान है। जो जागतिक एवं आध्यात्मिक जगत को सुखद एवं सुन्दर बनाने हेतु बनाया गया है।
उपरोक्त अध्ययन से पता चलता है कि समाज में पुरोहित पद को लेकर भ्रान्तियां है। पर हित में जीवन यापन करने वाला कभी भी व्यवसायी नहीं हो सकता है। पंडित एवं पंडों द्वारा पुरोहित पद को विकृत करके दिखाया गया है। इसका वास्तविक स्वरूप आज कही भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है । यह मात्र राजपुरोहित के पास ही सुरक्षित था।
राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में राजपुरोहित शब्द पर विचार करे तो एक जागीरदार का स्वरूप समक्ष आता है। राजपुरोहित का आधुनिक अर्थ ऐसे व्यक्ति से है, जिसके पास विप्र सा ज्ञान, क्षत्रिय सी बहादुरी, वैश्य सी कर्म दक्षता एवं शूद्र सा सेव्य भाव हो। सामाजिक अर्थनैतिक सिद्धांत इसके लिए सदविप्र शब्द का प्रयोग करता है। राजपुरोहित में यदि उपर्युक्त चारों गुण हैं तो वह सदविप्र की परिधि में आ सकता है। सदविप्र के लिए यम-नियम में प्रतिष्ठित एवं भूमा भाव का साधक होना आवश्यक है। भूमा भाव एवं यम-नियम समाज की आधारशीला है। समाज की रचना इसी आधारशीला पर होती है। समाज की सुदृढ़ता के लिए उपर्युक्त आधार होना आवश्यक है। एक राजपुरोहित का पुरोहितत्व आध्यात्मिक लक्ष्य एवं सामाजिक सोच के बिना संभव नहीं है। पर हित की साधना के लिए एक मजबूत इच्छा शक्ति की आवश्यकता है। जो भूमा भाव की साधना से प्राप्त होती हैं। इसलिए राजपुरोहित को आध्यात्मिक साधक के साथ सामाजिक कर्म कुशल होना आवश्यक है।
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लेखक ➡ श्री करण सिंह शिवतलाव
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(यह लेख मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वलिखित हैं)