"जैन धर्म": अवतरणों में अंतर

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* सम्यक् दर्शन - सम्यक् दर्शन को प्रगताने के लिए तत्त्व निर्णय की साधना करनी चहिये | तत्त्व निर्णय - मै इस शरीर आदि से भिन्न एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हू, यह शरीरादी मै नहीं और यह मेरे नहीं |
* [[सम्यक् ज्ञान]] - सम्यक ज्ञान प्रगताने के लिए भेद ज्ञान की साधना करनी चहिये | भेद ज्ञान - जिस जीव का, जिस दृव्य का जिस समय जो कुछ भी होना है, वह उसकी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा। उसे कोई ताल फेर बदल सकता नहीं।
* सम्यक् चारित्र - सम्यक चारित्र की साधना के लिए वस्तु स्वरुप की साधना करना चहिये। सम्यक चरित्र का तात्पर्य नैैतिक आचरण से है | पंचमहाव्रत का पालन ही शिक्षा है जो चरित्र निर्माण करती है|
 
यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं रहता।{{sfn|आचार्य नेमिचन्द्र|२०१३|प=१४६}} सम्यक्त्व के आठ अंग है —निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्त्व, अमूढदृष्टित्व, उपबृंहन / उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य।