"मैथिलीशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर

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:'' जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
:'' भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
:'' किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
:'' राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
:'' बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
:'' जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!
:'' मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
:'' तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
:'' वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
:'' विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
:'' कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
:'' आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
:'' बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
:'' मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई
:'' क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
:'' है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
:'' बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
:'' पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
:'' है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
:'' रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
:'' और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
:'' शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
:'' सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
:'' अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
:'' अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
:'' पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥
:'' तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
:'' वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
:'' अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
:'' किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!
:'' और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
:'' व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
:'' कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
:'' पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!
 
==सन्दर्भ==