"मैथिलीशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर

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:'' कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
:'' पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक! <ref> {{cite web|url=http://www.kavitakosh.org/kk/%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%81_%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%9A%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%87%E0%A4%82_/_%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%A3_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4|title=चारुचन्द्र की चंचल किरणें|work=kavitakosh.org|accessdate=20 अप्रैल 2019}} </ref>
 
==भाषा शैली==
मैथिलीशरण गुप्त की काव्य '''भाषा''' [[खड़ी बोली]] है। इस पर उनका पूर्ण अधिकार है। भावों को अभिव्यक्त करने के लिए गुप्त जी के पास अत्यन्त व्यापक शब्दावली है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं की भाषा [[तत्सम]] है। इसमें साहित्यिक सौन्दर्य कला नहीं है। 'भारत-भरती' की भाषा में खड़ी बोली की खड़खड़ाहट है, किन्तु गुप्त जी की भाषा क्रमशः विकास करती हुई सरस होती गयी। [[संस्कृत]] के शब्दभण्डार से ही उन्होंने अपनी भाषा का भण्डार भरा है, लेकिन '[[प्रियप्रवास]]' की भाषा में संस्कृत बहुला नहीं होने पायी। इसमें [[प्राकृत]] रूप सर्वथा उभरा हुआ है। भाव व्यञ्जना को स्पष्ट और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए संस्कृत का सहारा लिया गया है। संस्कृत के साथ गुप्त जी की भाषा पर प्रांतीयता का भी प्रभाव है। उनका काव्य भाव तथा कला पक्ष दोनों की दृष्टि से सफल है।
 
'''शैलियों''' के निर्वाचन में मैथिलीशरण गुप्त ने विविधता दिखाई, किन्तु प्रधानता प्रबन्धात्मक इतिवृत्तमय शैली की है। उनके अधिकांश काव्य इसी शैली में हैं- 'रंग में भंग', 'जयद्रथ वध', 'नहुष', 'सिद्धराज', 'त्रिपथक', 'साकेत' आदि प्रबंध शैली में हैं। यह शैली दो प्रकार की है- 'खंड काव्यात्मक' तथा 'महाकाव्यात्मक'। साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड काव्य के अंतर्गत आते हैं।
 
गुप्त जी की एक शैली विवरण शैली भी है। 'भारत-भारती' और 'हिन्दू' इस शैली में आते हैं। तीसरी शैली 'गीत शैली' है। इसमें गुप्त जी ने नाटकीय प्रणाली का अनुगमन किया है। 'अनघ' इसका उदाहरण है। आत्मोद्गार प्रणाली गुप्त जी की एक और शैली है, जिसमें 'द्वापर' की रचना हुई है। नाटक, गीत, प्रबन्ध, पद्य और गद्य सभी के मिश्रण एक 'मिश्रित शैली' है, जिसमें 'यशोधरा' की रचना हुई है।
 
इन सभी शैलियों में गुप्त जी को समान रूप से सफलता नहीं मिली। उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें इनका व्यक्तित्व झलकता है। पूर्ण प्रवाह है। भावों की अभिव्यक्ति में सहायक होकर उपस्थित हुई हैं।
 
==सन्दर्भ==