"पिथौरागढ़": अवतरणों में अंतर

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हाल-फिलहाल तक पिथौरागढ़ में खस वंश का शासन रहा है, जिन्हें यहाँ के किले या कोटों के निर्माण का श्रेय जाता है। पिथौरागढ़ के इर्द-गिर्द चार किले हैं जिनका नाम [[भाटकोट, पिथौरागढ (सदर) तहसील|भाटकोट]], डूंगरकोट, उदयकोट तथा [[ऊंचाकोट, डीडीहाट तहसील|ऊँचाकोट]] है। खस वंश के बाद यहाँ कचूडी वंश (पाल-मल्लासारी वंश) का शासन हुआ तथा इस वंश का राजा अशोक मल्ला, [[बलबन]] का समकालीन था। इसी अवधि में राजा पिथौरा द्वारा पिथौरागढ़ स्थापित किया गया तथा इसी के नाम पर पिथौरागढ़ नाम भी पड़ा। इस वंश के तीन राजाओं ने पिथौरागढ़ से ही शासन किया तथा निकट के [[खडकोट, पिथौरागढ (सदर) तहसील|गाँव खङकोट]] में उनके द्वारा निर्मित ईंटों के किले को वर्ष १९६० में पिथौरागढ़ के तत्कालीन जिलाधीश ने ध्वस्त कर दिया। वर्ष १६२२ के बाद से पिथौरागढ़ पर [[चन्द राजवंश]] का आधिपत्य रहा।
 
पिथौरागढ़ के इतिहास का एक अन्य विवादास्पद वर्णन है।

एटकिंसन के अनुसार, चंद वंश के एक सामंत पीरू गोसाई ने पिथौरागढ़ की स्थापना की। ऐसा लगता है कि चंद वंश के राजा भारती चंद के शासनकाल (वर्ष १४३७ से १४५०) में उसके पुत्र रत्न चंद ने नेपाल के राजा दोती को परास्त कर सौर घाटी पर कब्जा कर लिया एवं वर्ष १४४९ में इसे कुमाऊं या कुर्मांचल में मिला लिया। उसी के शासनकाल में पीरू (या पृथ्वी गोसांई) ने पिथौरागढ़ नाम से यहाँ एक किला बनाया। किले के नाम पर ही बाद में इस नगर का नाम पिथौरागढ़ हुआ।
 
चंदों ने अधिकांश कुमाऊं पर अपना अधिकार विस्तृत कर लिया जहाँ उन्होंने वर्ष १७९० तक शासन किया। उन्होंने कई कबीलों को परास्त किया तथा पड़ोसी राजाओं से युद्ध भी किया ताकि उनकी स्थिति सुदृढ़ हो जाय। वर्ष १७९० में, गोरखियाली कहे जाने वाले गोरखों ने कुमाऊं पर कब्जा जमाकर चंद वंश का शासन समाप्त कर दिया। वर्ष १८१५ में गोरखा शासकों के शोषण का अंत हो गया जब [[ईस्ट इंडिया कंपनी]] ने उन्हें परास्त कर कुमाऊं पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। एटकिंसन के अनुसार, वर्ष १८८१ में पिथौरागढ़ की कुल जनसंख्या ५५२ थी। अंग्रेजों के समय में यहाँ एक सैनिक छावनी, एक चर्च तथा एक मिशन स्कूल था। इस क्षेत्र में क्रिश्चियन मिशनरी बहुत सक्रिय थे।
 
पिथौरागढ़ का 10वीं सदी से लेकर कालखंड का इतिहास महत्वपूर्ण है। 1815 ईसवी में ब्रिट्रिश हुकूमत ने इसे ब्रिट्रिश परगना ऑफ सोर एंड जौहार नाम दिया। कत्यूरी शासक पिथौरा शाही के यहां शासन करने के कारण इस नगर का नाम पिथौरागढ़ पड़ गया। नगर में ही शामिल रई, भाटकोट से 200 ईपू के मृदभांडों तथा नैनीपातल से ताम्र आकृतियों की प्राप्ति नगर की प्राचीनता का बोध कराती है। सिंगौली संधि के पश्चात यह क्षेत्र आजादी तक औपनिवेशिक शासकों के अधीन रहा।
 
कत्यूरी शासकों का राज रहा, इस वंश के ही पिथौरा शाही यहां के शासक थे, जिन्हें प्रीतम देव, पृथ्वी शाही और राजा राय पिथौरा शाही के नाम से भी जाना जाता है। इनके द्वारा सोर नाम भी दिया गया, जिसे अब पिथौरागढ़ कहा जाता है। एक तुर्क का भी निर्माण कराया, जिसे कालांतर में पृथ्वीगढ़ के नाम से जाना जाता है। अनुमानत: 1330 से लेकर 1400 ई. के मध्य निर्मित इस स्थान पर अब राबाइंका स्थित है। कत्यूरी वंश के बिखर जाने के बाद यहां चंद वंश का शासन रहा। लंबे समय तक शासन करने के बाद वर्ष 1790 में राजा महेंद्र चंद गोरखाओं से पराजित हो गए। इसके बाद पिथौरागढ़ गोरखाओं के कब्जे में रहा। पिथौरा शाही के किले में गोरखा फौजों के रहने से इसे गोरख्या किला भी कहा जाता है। इसी किले से नगर का नाम पिथौरागढ़ पड़ा। नगर के मध्य स्थित इस किले को लंदन फोर्ट किले के नाम से भी जाना जाता है।
 
वर्ष १९६० तक अंग्रेजों की प्रधानता सहित पिथौरागढ़ अल्मोड़ा जिले की एक तहसील थी जिसके बाद यह एक जिला बना। वर्ष १९९७ में पिथौरागढ़ के कुछ भागों को काटकर एक नया जिला [[चंपावत जिला|चंपावत]] बनाया गया तथा इसकी सीमा को पुनर्निर्धारित कर दिया गया। वर्ष २००० में पिथौरागढ़ नये राज्य उत्तराखण्ड का एक भाग बन गया।