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कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को आरम्भ किया और उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय और उसके अन्य नामों-विशाख, महासेना, और स्कन्द का अंकन भी अपने सिक्कों पर करवाया। कनिष्क के बेटे सम्राट हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया हैं। आधुनिक पंचाग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है।
 
== कुषाण खाप अध्यन ==
 
गुर्जरों का खाप अध्ययन (Clan Study) भी इनकी कुषाण उत्पत्ति की तरफ इशारा कर रहा हैं| एच. ए. रोज के अनुसार [[पंजाब]] के गुर्जरों में मान्यता हैं कि गुर्जरों के ढाई घर असली हैं -गोर्सी, कसाना और आधा बरगट| दिल्ली क्षेत्र में चेची, नेकाडी,गोर्सी और कसाना असली घर '''खाप'''  माने जाते हैं| करनाल क्षेत्र में गुर्जरों के गोर्सी,  चेची और कसाना असली घर माने जाते हैं| पंजाब के गुजरात जिले में चेची खटाना मूल के माने जाते हैं| एच. ए. रोज कहते हैं कि उपरोक्त विवरण के आधार पर कसाना, खटाना और गोरसी गुर्जरों के असली और मूल खाप मानी जा सकती हैं| कुल मिला कर '''चेची, कसाना, खटाना, गोर्सी, बरगट और नेकाड़ी''' आदि 6 खापो की गुर्जरों के असली घर या गोत्रो की मान्यता रही हैं। <ref>एच. ए. रोज, ए गिलोसरी ऑफ ट्राइब एंड कास्ट ऑफ पंजाब एंड नोर्थ-वेस्टर्न प्रोविंसेज</ref>
कनिंघम आदि इतिहासकारों के अनुसार गुर्जरों का पूर्वज कुषाण और उनके भाई-बंद काबिले का परिसंघ हैं और भारत में उनका आगमन अफगानिस्तान स्थित हिन्दू- कुश पर्वत की तरफ से हुआ हैं जहाँ से ये उत्तर भारत्त में फैले गए| इस अवधारणा के अनुसार गुर्जरों का शुद्धतम या मूल स्वरुप आज भी अफगानिस्तान में होना चाहिए| अफगानिस्तान में गुर्जरों के 6 गोत्र ही मुख्य से पाए जाते हैं – चेची, कसाना, खटाना, बरगट, गोर्सी और नेकाड़ी | इन्ही गोत्रो की चर्चा बार-बार गुर्जरों के पूर्वज अपने असली घरो यानि गोत्रो के रूप में करते रहे हैं| वहां ये आज भी गुजुर (गुशुर) कहलाते हैं| गुशुर कुषाण साम्राज्य के राजसी वर्ग को कहा जाता था| गुशुर शब्द से ही गुर्जर शब्द की उत्पत्ति हुई हैं| अतः प्रजातीय नाम एवं लक्षणों की दृष्टी से, अफगानिस्तान में गुर्जर आज भी अपने शुद्धतम मूल स्वरुप में हैं। <ref>ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864</ref> <ref>के. एम. मुंशी, दी ग्लोरी देट वाज़ गुर्जर देश, बोम्बे, 1954
</ref>
यूची-कुषाण का आरभिक इतिहास मध्य एशिया से जुड़ा रहा हैं, वहाँ यह परम्परा थी कि विजेता खाप और कबीले अपने जैसी भाई-बंद खापो को अपने साथ जोड़ कर अपनी सख्या बल का विस्तार कर शक्तिशाली  हो जाते थे| अतः भारत में भी यूची-कुषाणों ने ऐसा किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। <ref> विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली</ref>
 
गुर्जरों के असली घर कही जाने वाली खापो की कुषाण उत्पत्ति पर अलग से चर्चा की आवशकता हैं|
           
'''चेची''': प्राचीन चीनी इतिहासकारों के अनुसार बैक्ट्रिया आगमन से पहले कुषाण परिसंघ की भाई-बंद खापे  और कबीले यूची कहलाते थे| वास्तव में यूची भी भाई-बंद खापो और कबीलों का परिसंघ था, जोकि अपनी शासक परिवार अथवा खाप के नाम पर यूची कहलाता था| बैक्ट्रिया में शासक परिवार या खाप कुषाण हो जाने पर यूची परिसंघ कुषाण कहलाने लगा|चेची और यूची में स्वर (Phonetic) की समानता हैं| यह सम्भव हैं कि यूची चेची शब्द का चीनी रूपांतरण हो| अथवा यह भी हो सकता हैं कि चेची यूची का भारतीय रूपांतरण हो। <ref>हाजिमे नकमुरा, दी वे ऑफ थिंकिंग ऑफ इस्टर्न पीपल्स: इंडिया-चाइना-तिब्बत–जापान</ref>हालाकि चेची की यूची के रूप में पहचान के लिए अभी और अधिक शोध की आवशकता हैं|  हम देख चुके हैं कि चेची की गणना गुर्जरों के असली घर अथवा खाप के रूप में होती हैं|  चेची गोत्र संख्या बल और क्षेत्र विस्तार की दृष्टी से गुर्जरों का प्रमुख गोत्र है जोकि  हिंदू कुश की पहाडियों से से लेकर दक्षिण भारत तक पाया जाता हैं| अधिकांश स्थानों पर इनकी आबादी कसानो के साथ-साथ पाई जाती हैं|
<ref>जी. ए. ग्रीयरसन, लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, खंड IX भाग IV, कलकत्ता, 1916</ref>
 
'''गोर्सी''' : एलेग्जेंडर कनिंघम के अनुसार कुषाणों के सिक्को पर कुषाण को कोर्स अथवा गोर्स भी पढ़ा जा सकता हैं| उनका कहना हैं गोर्स से ही गोर्सी बना हैं| गोर्सी गोत्र भी अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत में मिलता हैं। <ref>Alexender Cunningham</ref>
 
'''खटाना''': संख्या और क्षेत्र विस्तार की दृष्टी से खटाना गुर्जरों का एक राजसी गोत्र हैं| अफगानिस्तान में यह एक प्रमुख गुर्जर गोत्र हैं| पाकिस्तान स्थित झेलम गुजरात में खाटाना सामाजिक और और आर्थिक बहुत ही मज़बूत हैं| पाकिस्तान के गुर्जरों में यह परंपरा हैं कि हिन्द शाही वंश के राजा जयपाल और आनंदपाल खटाना थे| आज़ादी के समय भारत में झाँसी स्थित समथर राज्य के राजा खटाना गुर्जर थे, ये परिवार भी अपना सम्बंध पंजाब के शाही वंश के जयपाल एवं आनंदपाल से मानते हैं और अपना आदि पूर्वज कैद राय को मानते हैं| राजस्थान में पंजाब से आये खटाना को एक वर्ग को तुर्किया भी बोलते हैं| पाकिस्तान में हज़ारा रियासत भी खटाना गोत्र की थी। <ref>.के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-1 उदयपुर, 1954</ref> <ref>बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहार, नई दिल्ली, 1986</ref>
 
खटाना गुर्जर संभवतः मूल रूप से चीन के तारिम घाटी स्थित खोटान के मूल निवासी हैं| खोटान का कुषाणों के इतिहास से गहरा सम्बन्ध हैं| यूची-कुषाण मूल रूप से चीन स्थित तारिम घाटी के निवासी थे| खोटान भी तारिम घाटी में ही स्थित हैं| हिंग-नु कबीले से पराजित होने के कारण यूची-कुषाणों को तारिम घाटी क्षेत्र छोड़ना पड़ा| किन्तु कुशाण सम्राट कनिष्क महान ने चीन को पराजित कर तारिम घाटी के खोटान, कशगर और यारकंद क्षेत्र को दोबारा जीत लिया था| यहाँ भारी मात्रा में कुषाणों के सिक्के प्राप्त हुए हैं| कनिष्क के सहयोगी खोटान नरेश विजय सिंह को तिब्बती ग्रन्थ में खोटाना राय लिखा गया हैं। <ref>डी. आर. भण्डारकर, गुर्जर (लेख), जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903</ref>
 
सभवतः खटाना गोत्र का सम्बन्ध किदार कुषाणों से हैं| समथर रियासत के खटाना राजा अपना आदि पूर्वज पंजाब के राजा कैदराय को मानते हैं| कैदराय संभवतः किदार तथा राय शब्द से बना हैं| किदार कुषाणों का पहला राजा भी किदार था|
<ref>रमाशंकर त्रिपाठी, हिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट इंडिया, दिल्ली, 1987</ref>
यह शोध का विषय हैं की किदार कुषाणों के पहले शासक किदार का कोई सम्बन्ध खोटान या खोटाना राय विजय सिंह था या नहीं?
 
'''नेकाडी''': राजस्थान के गुर्जरों में नेकाड़ी धार्मिक दृष्टी से पवित्रतम गोत्र माना जाता हैं| अफगानिस्तान और भारत में नेकाड़ी गोत्र पाया जाता हैं| राजस्थान के गुर्जरों में इसे विशेष आदर की दृष्टी से देखा जाता हैं| नेकाड़ी मूलतः चेची माने जाते हैं|
 
'''बरगट''' : बरगट गोत्र अफगानिस्तान और भारत के राजस्थान इलाके में पाया जाता हैं|
 
'''कसाना/कषाणा''' अलेक्जेंडर कनिंघम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, खंड IV, 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है| अपनी इस धारणा के पक्ष में कहते हैं कि आधुनिक गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का प्रतिनिधि हैं| अलेक्जेंडर कनिंघम बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला हुआ है| कसानो के सम्बंध में पूर्व में ही काफी कहा चुका है। <ref>अलेक्जेंडर कनिंघम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, खंड IV, 1864</ref>
 
'''देवड़ा/दीवड़ा''' गुर्जरों की इस खाप के गाँव गंगा जमुना के ऊपरी दोआब के मुज़फ्फरनगर क्षेत्र में हैं| कैम्पबेल ने भीनमाल नामक अपने लेख में देवड़ा को कुषाण सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ा हैं। <ref> जे.एम. कैम्पबैल, दी गूजर (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899</ref>
 
'''दीपे/दापा''' : गुर्जरों की इस खाप की आबादी कल्शान और देवड़ा खाप के साथ ही मिलती हैं तथा तीनो खाप अपने को एक ही मानती हैं| शादी-ब्याह में खाप के बाहर करने के नियम का पालन करते वक्त तीनो आपस में विवाह भी नहीं करते हैं और आपस में भाई माने जाते हैं| संभवतः अन्य दोनों की तरह इनका सम्बन्ध भी कुषाण परिसंघ से हैं|
 
'''कपासिया''' : गुर्जरों की कपासिया खाप का निकास कुषाणों की राजधानी कपिशा (बेग्राम) से प्रतीत होता हैं| कपसिया खाप के, गंगा जमुना के ऊपरी दोआब स्थित बुलंदशहर क्षेत्र में १२ गाँव हैं|
 
'''बैंसला''' : गुर्जरों की बैंसला खाप का नाम संभवतः कुषाण सम्राट की उपाधि से आया हैं| कुषाण सम्राट कुजुल कडफिस ने ‘बैंसिलिओ’ उपाधि धारण की थी| कनिष्क ने यूनानी उपाधि ‘बैसिलिअस बैंसिलोंन’ (Basilius Basileon) धारण की थी, जिसका अर्थ हैं राजाओ का राजा (King of King)| जैसा की सर्व विदित हैं की कुषाणों पर उनके बैक्ट्रिया प्रवास के समय यूनानी भाषा और संसकृति का अत्याधिक प्रभाव पड़ा | अतः बैंसला यूनानी मूल का शब्द हैं जिसका अर्थ हैं राजा| सम्भव हैं बैसला खाप का सम्बन्ध भी कुषाणों के राजसी वर्ग से रहा हैं| इस खाप के दिल्ली के समीप लोनी क्षेत्र १२ गाँव तथा पलवल क्षेत्र में २४ गाँव हैं। <ref>बी. एन. मुखर्जी, कुषाण स्टडीज: न्यू पर्सपैक्टिव,कलकत्ता, 2004,</ref>
 
'''मुंडन''' : गुर्जरों के मुंडन गोत्र का सम्बन्ध संभवतः कुषाण सम्राटो को उपाधि मुरुंड (lMurunda) से हैं जिसका अर्थ हैं – स्वामी| गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के इलाहबाद अभिलेख में भी पश्चिमिओत्तर भारत में देवपुत्र शाह्नुशाही शक मुरुंड शासको का ज़िक्र हैं| प्राचीन काल में बिहार में भी मुरुंड वंश के शासन का पता चलता हैं| वर्तमान में गंगा जमुना का ऊपरी दोआब में मुंडन गुर्जर पाए जाते हैं| मंडार, मौडेल और मोतला खाप का सम्बंध मुंडन खाप से हैं|
 
'''मीलू''' : कुषाणों की एक उपाधि मेलूं (Melun) भी थी|गुर्जरोंके मीलू गोत्र का सम्बन्ध कुषाण सम्राट की उपाधि मेलूं से प्रतीत होता हैं| यह गोत्र प्रमुख रूप से पंजाब में पाया जाता हैं|
 
'''दोराता''' : गुर्जरों की दोरता खाप का सम्बंध कुषाण सम्राट कनिष्क की दोमराता (Domrata- Law of the living word) उपाधि से प्रतीत होता हों| वर्तमान में खाप राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पायी जाती हैं|
 
'''चांदना''' : चांदना कनिष्क की महत्वपूर्ण उपाधि थी | वर्तमान में गुर्जरों में चांदना गोत्र राजस्थान में पाया जाता हैं|
गुर्जरों के असली घर माने जाने वाले कसाना और खटाना का उच्चारण का अंत ना से होता हैं तथा एक-आध अपवाद को छोड़कर ये गोत्र अन्य जातियों में भी नहीं पाए जाते हैं। <ref>स्टडीज़ इन इंडो-एशियन कल्चर, खंड 1, इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ इंडियन कल्चर, 1972</ref> स्थान भेद के कारण अनेक बार ना को णा भी उच्चारित किया जाता हैं, यानि कसाना को कसाणा और खटाना को खटाणा|  इसी प्रकार के उच्चारण वाले गुर्जरों के अनेक गोत्र हैं, जैसे- '''अधाना, भडाना, हरषाना, सिरान्धना, करहाना, रजाना, फागना, महाना, अमाना, करहाना, अहमाना, चपराना/चापराना, रियाना, अवाना, चांदना''' आदि|  संख्या बल की दृष्टी से ये गुर्जरों के बड़े गोत्र हैं| सभवतः इन सभी खापो का सम्बन्ध कुषाण परिसंघ से रहा हैं| | स्वयं कनिष्क की एक महतवपूर्ण उपाधि चांदना थी| कुषाण कालीन अबोटाबाद अभिलेख में '''गशुराना''' उपाधि का प्रयोग हुआ हैं| स्पष्ट हैं कि गशुराना शब्द यहाँ गशुर और राना शब्द से मिलकर बना हैं| संभवतः '''राना''' अथवा '''राणा''' उपाधि के प्रयोग का यह प्रथम उल्लेख हैं| अतः संभव हैं कि गुर्जरों के ना अथवा णा से अंत होने वाले गोत्र नामो में राना/राणा शब्द समाविष्ट हैं| चपराना गोत्र में तो राना पूरी तरह स्पष्ट हैं| मेरठ क्षेत्र में करहाना और कुछ चपराना गुर्जर गोत्र नाम केवल राणा लिखते हैं| कुषाण कालीन अबोटाबाद अभिलेख में यदि शाफर के लिए गशुराना उपाधि का प्रयोग हुआ हैं तो दसवी शताब्दी के  खजराहो अभिलेख में कन्नौज के [[गुर्जर प्रतिहार राजवंश|गुर्जर प्रतिहार]] शासक के लिए '''गुर्जराणा''' उपाधि का प्रयोग किया गया हैं| अतः कुषाणों के गुशुर/गशुर/गौशुर वर्ग से गुर्जर उत्पत्ति हुई है।
<ref>जे.एम. कैम्पबैल, दी गूजर (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899</ref>
 
==सन्दर्भ==