"उष्मागतिकी": अवतरणों में अंतर
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अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) |
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[[जूल]] के प्रयोगों ने यह सिद्ध किया कि उष्मा, ऊर्जा का ही एक रूप है और वह अपनी मात्रा के अनुपात में ही काम कर सकती है। इसी को '''उष्मागति का प्रथम नियम''' कहते हैं। इसके अनुसार बिना लगातार [[ईंधन]] जलाए किसी उष्मिक इंजन से निरन्तर काम नहीं लिया जा सकता। किन्तु उष्मा की मात्रा तो चारों ओर अनन्त है और इसलिए यह सम्भावना हो सकती है कि हम चारों ओर के पदार्थों की उष्मा निकालकर उसको काम में परिवर्तित करते रहें और इस प्रकार बिना व्यय के इंजन चला सकें। अनुभव यह बतलाया है कि ऐसा होना संभव नहीं और यही दूसरे नियम का विषय है।
यह नियम उन परिवर्तनों पर लागू होता है जिनमें एक चक्र (साइकिल) के उपरान्त समुदाय पुनः अपने मूल रूप में आ जाता है। इसका यह अर्थ है कि हम केवल ऐसे परिवर्तनों पर विचार करेंगे जिनमें उष्मा कर्म में परिवर्तित होती है और इसके अतिरिक्त कोई अन्य परिवर्तन नहीं होता। इस नियम के अनुसार यदि कोई पदार्थ और उसके परिपार्श्व (surroundings) सब एक ही ताप पर हों तो उनकी उष्मा को काम में नहीं बदला जा सकता। ऐसा करने के लिए कम से कम दो भिन्न तापवाले पदार्थों की आवश्यकता होती है और उनसे ताप के
आचार्यों ने '''उष्मागतिकी के दूसरे नियम''' के अनेक रूप दिए हैं जो मूलतः एक ही हैं, जैसे :
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