"कनिष्क": अवतरणों में अंतर

→‎भारतीय क्षेत्र: कुषाण खाप अध्यन की कडी लगाई
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सम्राट कनिष्क के सिक्को पर पाए जाने वाले शाही निशान को कनिष्क का तमगा भी कहते है। कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं इसलिए इसे चार शूल वाला '''चतुर्शूल तमगा''' भी कहते हैं। कनिष्क का चतुर्शूल तमगा सम्राट और उसके वंश/कबीले का प्रतीक हैं। इसे राजकार्य में शाही मोहर के रूप में भी प्रयोग किया जाता था। कनिष्क के पिता विम कडफिस ने सबसे पहले चतुर्शूल तमगा अपने सिक्को पर शाही निशान के रूप में प्रयोग किया था। विम कडफिस शिव का उपासक था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी। माहेश्वर का अर्थ हैं शिव भक्त। <ref>भास्कर चट्टोपाध्याय, दी ऐज ऑफ़ कुशान्स- ए न्यूमिसमैटिक स्टडी, कलकत्ता, 1967</ref>
शैव चिन्ह पूर्व में भी तमगे के रूप में प्रयोग हो रहे थे| नंदी बैल के पैर का निशान वाला ‘नन्दीपद तमगा’ शासको द्वारापूर्व में भी सिक्को पर प्रयोग किया गया था। इसलिए कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि चतुर्शूल तमगा शिव की सवारी ‘नंदी बैल के पैर के निशान’ और शिव के हथियार '''त्रिशूल''' का ‘मिश्रण’ हैं। अतः विम कड्फिस और कनिष्क का तमगा एक शैव चिन्ह हैं। तमगे का नीचे वाला भाग नंदीपद जैसा हैं, परन्तु इसमें त्रिशूल के तीन शूलो के स्थान पर चार शूल हैं। कनिष्क को गुर्जर सम्राट माना जाता है अतः एशिया के विभिन्न देशों के गुर्जर इसी चिन्ह को अपना चिन्ह मानते हैं और हिन्दू मुश्लिम सिक्ख ओर जैन धर्म के गुर्जर एकरूप से इसे स्वीकारते हैं <ref> जॉन एम, रोजेनफील्ड, दी डायनेस्टिक आर्ट्स ऑफ़ कुशान्स</ref>
कनिष्क के तमगे में चतुर्शूल पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर) का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि प्राचीन भारत में पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर) के अंकन का अन्य उदहारण भी हैं| राजघाट, वाराणसी से एक मोहर प्राप्त हुई हैं, जिस पर दो हाथ वाली एक देवी तथा गुप्त लिपि में दुर्ग्गाह उत्कीर्ण हैं, देवी के उलटे हाथ में माला तथा तथा सीधे हाथ में एक चार शूल वाली वस्तु हैं| चार शूल वाली यह वस्तु पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर अस्त्र) हैं, क्योकि पाशुपतास्त्र शिव की पत्नी दुर्गा का भी अस्त्र हैं| दुर्गा ‘नाना’ के रूप में कुषाणों की अधिष्ठात्री देवी हैं| रबाटक अभिलेख के अनुसार नाना (दुर्गा) कनिष्क की सबसे सम्मानीय देवी थी तथा नाना (दुर्गा) के आशीर्वाद से ही उसे राज्य की प्राप्ति हुई थी| अतः खास तौर से दुर्गा के हाथ में ‘पाशुपतास्त्र’ (ब्रह्मशिर) के अंकन से यह बात और भी अधिक प्रबल हो जाती हैं कि कनिष्क के तमगे में उत्कीर्ण चार शूल पाशुपतास्त्र का ही प्रतिनिधत्व करते हैं| नाना देवी का नाम आज भी नैना देवी (दुर्गा) के नाम में प्रतिष्ठित हैं| इनका मंदिर बिलासपुर, हिमांचल प्रदेश में स्थित हैं| यह मान्यता हैं कि नैना देवी की मूर्ती (पिंडी) की खोज एक गूजर ने की थी।<ref>श्री पद्म, विसिस्सीटयूड्स ऑफ़ दी गॉडेस: रीकंस्ट्रक्शन ऑफ़ दी ग्रामदेवता, 2013</ref> ए. कनिंघम ने गूजरों की पहचान ऐतिहासिक कोशानो (कुषाणों) के रूप में की हैं। अतः कुषाणों का नाम आज भी नाना (दुर्गा) से जुड़ा हुआ हैं। <ref> A.Cunningham</ref><ref> बी. एन. मुख़र्जी, नाना ऑन लायन: ए न्यूमिसमैटिक स्टडी, एशियाटिक सोसाइटी, 1969</ref>