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जब कोई प्रक्रिया या प्रावस्था किसी दूसरी प्रक्रिया या प्रावस्था को उत्पन्न करती है तो इसे '''कारणता''' (causality या causation) कहते हैं। जो प्रक्रिया/प्रावस्था उत्पन्न होती है उसे 'प्रभाव' कहते हैं तथा प्रभाव को उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया/प्रावस्था को 'कारण' कहा जाता है। कारणता को 'कार्यकारण' ( cause and effect) भी कहते हैं। ध्यातव्य ह कि कारण, प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार है तथा प्रभाव, आम्शिक रूप से कारण पर निर्भर होता है।
 
==कारण==
'''कारण''' जो कार्य के पूर्व में नियत रूप से रहता है और [[अन्यथासिद्धि]] न हो उसे कारण नहीं कहते हैं। केवल कार्य के पूर्व में रहने से ही कारणत्व नहीं होता, कार्य के उत्पादन में साक्षात्कार सहयोगी भी इसे होना चाहिए। अन्यथासिद्ध में उन तथाकथित कारणों का समावेश होता है जो कार्य की उत्पत्ति के पूर्व रहते हैं पर कार्य के उत्पादन में साक्षात् उपयोगी नहीं है। जैसे कुम्हार का पिता अथवा मिट्टी ढोनेवाला गधा घट रूप कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध है।
 
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कार्य के पूर्व में नियत रूप से रहना दो तरह का हो सकता है। कारण कार्य के उत्पादन के पहले तो रहता है परंतु कार्य के उस कारण से पृथक् उत्पन्न होता है। कारण केवल नवीन कार्य के उत्पादन में सहकारी रहता है। मिट्टी से घड़ा बनता है अतः मिट्टी घड़े का कारण है और वह कुम्हार भी जो मिट्टी को घड़े का रूप देता है। कुम्हार के व्यापार के पूर्व मिट्टी मिट्टी है और घड़े को कोई अस्तित्व नहीं है। कुम्हार के सहयोग से घड़े की उत्पत्ति होती है अत: घड़ा नवीन कार्य है जो पहले कभी नहीं था। इस सिद्धांत को आरंभवाद कहते हैं। कारण नवीन कार्य का आरंभक होता है, कारण स्वयं कार्य रूप में परिणत नहीं होता। यद्यपि कार्य के उत्पादन में मिट्टी, कुम्हार, चाक आदि वस्तुएँ सहायक होती हैं परंतु ये सब अलग-अलग कार्य (घड़ा) नहीं हैं और न तो ये सब सम्मिलित रूप में घड़ा इन सबके सहयोग से उत्पन्न परंतु इन सबसे विलक्षण अपूर्व उपलब्धि है। अवयवों से अवयवी पृथक् सत्ता है; इसी सिद्धांत के आधार पर आरंभवाद का प्रवर्तन होता है। भारतीय दर्शन में न्यायवैशेषिक इस सिद्धांत के समर्थक हैं।
 
कार्य का कारण के साथ संबंधसम्बन्ध दूसरी दृष्टि से भी देखा जा सकता है। मिट्टी से घड़ा बनता है अत:अतः घड़ा अव्यक्त रूप में (मिट्टी के रूप में) विद्यमान है। यदि मिट्टी न हो तो चूँकि घड़े की अव्यक्त स्थिति नहीं है अत: घड़ा उत्पन्न नहीं होता। वस्तुविशेष की कार्यविशेष के कारण हो सकते हैं। यदि कार्य कारण से भिन्न नवीन सत्ता हो तो कोई वस्तु किसी कारण से उत्पन्न हो सकती है। तिल की जगह बालू से तेल नहीं निकलता क्योंकि प्रकृति में एक सत्ता का नियम काम कर रहा है। सत्ता से ही सत्ता की उत्पत्ति होती है। असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती—यह प्रकृति के नियम से विपरीत होगा। सांख्ययोग का यह सिद्धांत परिणामवाद कहलाता है। इसके अनुसार कारण कार्य के रूप में परिणत होता है, अत: तत्वत: कारण कार्य से पृथक् नहीं है।
 
इन दोनों मतों से भिन्न एक मत और है जो न तो कारण को आरंभक मानता है और न परिणामी। कारण व्यापाररहित सत्ता है। उसमें कार्य की उत्पत्ति के लिए कोई व्यापार नहीं होता। कारण कूटस्थ तत्व है। परन्तु कूटस्थता के होते हुए भी कार्य उत्पन्न होता है। कारण कूटस्थ तत्व है। परंतु कूटस्थता के होते हुए भी कार्य उत्पन्न होता है क्योंकि द्रष्टा को अज्ञान आदि बाह्य उपाधियों के कारण कूटस्थ कारण अपने शुद्ध रूप में नहीं दिखाई देता। जैसे भ्रम की दशा में रस्सी की जगह सर्प का ज्ञान होता है, वैसे ही कारण की जगह कार्य दिखाई पड़ता है। अत: कारणकार्य का भेद तात्विक भेद नहीं है। यह भेद औपचारिक है। इस मत को, जो [[अद्वैत वेदान्त]] में स्वीकृत है, विवर्तवाद कहते हैं। आरम्भवाद में कार्य कारण पृथक् हैं, परिणामवाद में उनमें तात्विक भेद न होते हुए भी अव्यक्त-व्यक्त-अवस्था का भेद माना जाता है, परन्तु विवर्तवाद में न तो उनमें तात्विक भेद है और न अवस्था का। कार्य कारण का भेद भ्रांत भेद है और भ्रम से जायमान कार्य वस्तुतः असत् है। जब तक दृष्टि दूषित है तभी वह व्यावहारिक दशा में वे दोनों पृथक दिखाई देते हैं। दृष्टिदोष का विलय होते ही कार्य का विलय और कारण के शुद्ध रूप के ज्ञान का उदय होता है।