"यूरोपीय धर्मसुधार": अवतरणों में अंतर
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धर्मसुधार का यह नवीन स्वरूप समझने के लिए यूरोप की तत्कालीन परिस्थिति पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है।
ईसा द्वारा प्रवर्तित कैथोलिक चर्च के प्रति ईसाइयों में जो श्रद्धा का भाव शताब्दियों से चला आ रहा था वह कई कारणों से कम हो गया था। 14वीं शताब्दी में एक फ्रांसीसी पोप का चुनाव हुआ था, जो जीवन भर फ्रांस में ही रहे। इसके फलस्वरूप बाद में 40 वर्ष तक दो पोप विद्यमान थे, एक फ्रांस में और एक रोम में, जिससे समस्त काथलिक संसार दो भागों में विभक्त रहा। आठवीं शताब्दी में फ्रैंक जाति के
चर्च के केंद्रीय संगठन की इस दुर्दशा के अतिरिक्त विभिन्न धर्मप्रांतों की परिस्थिति भी संतोषजनक नहीं थी। इस समय समस्त पश्चिमी यूरोप लगभग सात सौ धर्मप्रांतों में विभक्त था। उनके शासक बिशप कहलाते थे। ये बिशप सामंत थे जो राजा द्वारा प्राय: अभिजात वर्ग में से चुने जाते थे, दरबार के सदस्य थे और जर्मनी में बहुधा अपने क्षेत्र के राजनीतिक शासक भी थे। अत: बहुत से बिशप राजनीति में अधिक, धर्म में कम रुचि लेते थे और अपने धर्मप्रदेश का धार्मिक प्रशासन विश्वविद्यालय के उच्च अधिकार प्राप्त पुरोहितों के हाथ में छोड़ देते थे। गाँवों में बसनेवाले अधिकांश साधारण पुरोहित अर्धशिक्षित थे। प्रवचन देने में असमर्थ थे और प्राय: गरीब भी थे। साधारण पुरोहितों की यह दयनीय दशा 16वीं शताब्दी के यूरोपीय काथलिक चर्च की सब से बड़ी कमजोरी थी। भ्रमण करनेवाले फ्रांसिस्को आदि धर्मसंधियों के अतिरिक्त जनसाधारण को (जो दो तिहाई निरक्षर था) धार्मिक शिक्षा देनेवाला कोई नहीं था। इससे सर्वत्र अंधविश्वास फैल गया और कर्मकांड को अनावश्यक एवं असंतुलित महत्व दिय जाने लगा।
13वीं शताब्दी में
जब लूथर ने रोम के विरुद्ध आवाज उठाई उनको एक और कारण से अपूर्व सफलता मिली। यूरोप में उस समय सर्वत्र प्राचीन यूनानी तथ लैटिन साहित्य की लोकप्रियता के साथ साथ एक नवीन सांस्कृतिक आंदोलन प्रारंभ हुआ जिसे रिनेसाँ अथवा नवजागरण कहा गया है। इसके फलस्वरूप लोगों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भाव उत्पन्न हुआ। मुद्रण के आविष्कार के कारण इसी समय से बाइबिल की मुद्रित प्रतियाँ अधिक सरलतापूर्वक सुलभ होने लगी थीं, जिससे लोगों को अपनी ओर से धर्म के विषय में सोचने और बाइबिल को अपनी निजी व्याख्या करने की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन मिलने लगा था।
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