"जैन ग्रंथ": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
2405:204:A78C:FE04:8E5E:A7F7:7217:D7F (वार्ता) द्वारा किए बदलाव 4095962 को पूर्ववत किया टैग: किए हुए कार्य को पूर्ववत करना |
Rishabh.rsd (वार्ता | योगदान) इस पृष्ठ में वर्तनी के अनुसार शब्द को ठीक किया है तथा citation बिना वाली इंफॉर्मेशन को निकाला है। टैग: यथादृश्य संपादिका मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन |
||
पंक्ति 2:
'''जैन साहित्य''' बहुत विशाल है। अधिकांश में वह धार्मिक साहित्य ही है। [[संस्कृत]], [[प्राकृत]] और [[अपभ्रंश]] भाषाओं में यह साहित्य लिखा गया है।
[[महावीर स्वामी|
आदिकालीन [[साहित्य]] में [[जैन]] साहित्य के ग्रन्थ सर्वाधिक संख्या में और सबसे प्रमाणिक रूप में मिलते हैं। जैन रचनाकारों ने [[पुराण काव्य]], [[चरित काव्य]], [[कथा काव्य]], [[रास काव्य]] आदि विविध प्रकार के ग्रंथ रचे। [[स्वयंभू]] , [[पुष्प दंत]], [[हेमचंद्र|आचार्य हेेमचंद्रजी]], [[सोमप्रभ सूरी|सोमप्रभ सूरीजी]]
==आगम-साहित्य की प्राचीनता==
पंक्ति 22:
जैन परम्परा के अनुसार महावीर निर्वाण (ईसवी सन् के पूर्व 527) के 160 वर्ष पश्चात (लगभग ईसवी सन् के 367 पूर्व) मगध देशों में बहुत भारी दुष्काल पड़ा, जिसके फलस्वरूप जैन भिक्षुओं को अन्यत्र विहार करना पड़ा। दुष्काल समाप्त हो जाने पर श्रमण पाटलिपुत्र (पटना) में एकत्रित हुए और यहाँ खण्ड-खण्ड करके ग्यारह अंगों का संकलन किया गया, बारहवाँ अंग किसी को स्मरण नहीं था, इसलिए उसका संकलन न किया जा सका। इस सम्मेलन को 'पाटलिपुत्र-वाचना' के नाम से जाना जाता है। कुछ समय पश्चात जब आगम साहित्य का फिर विच्छेद होने लगा तो महावीर निर्वाण के 827 या 840 वर्ष बाद (ईसवी सन् के 300-313 में) जैन साधुओं के दूसरे सम्मेलन हुए। एक [[आर्यस्कन्दिल]] की अध्यक्षता में [[मथुरा]] में तथा दूसरा [[नागार्जुन सूरि]] की अध्यक्षता में [[वलभी]] में।
मथुरा के सम्मेलन को 'माथुरी-वाचना' की संज्ञा दी गयी है। तत्पश्चात लगभग 150 वर्ष बाद, महावीर निर्वाण के 980 या 993 वर्ष बाद ( ईसवी सन् 453-466 में)
जैन आगमों की उक्त तीन संकलनाओं के इतिहास से पता लगता है कि समय-समय पर आगम साहित्य को काफी क्षति उठानी पड़ी, और यह साहित्य अपने मौलिक रूप में सुरक्षित नहीं रह सका।
==महत्व==
ईसा के पूर्व लगभग चौथी शताब्दी से लगाकर ईसवी सन् पाँचवी शताब्दी तक की भारतवर्ष की आर्थिक तथा सामाजिक दशा का चित्रण करने वाला यह साहित्य अनेक दृष्टियों से महत्त्व का है।
[[भगवती कल्पसूत्र]], ओवाइय, ठाणांग, निरयावलि आदि ग्रन्थों में श्रमण
छेदसूत्रों में साधुओं के आहार-विहार तथा प्रायश्चित आदि का विस्तृत वर्णन है, जिसकी तुलना बौद्धों के [[विनयपिटक]] से की सकती है। [[वृहत्कल्पसूत्र]] (1-50) में बताया गया है कि जब भगवान महावीर साकेत (
तत्पश्चात राजा [[कनिष्क]] के समकालीन मथुरा के जैन शिलालेखों में भिन्न-भिन्न गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख है, वह भद्रवाहु के कल्पसूत्र में वर्णित गण, कुल और शाखाओं के साथ प्रायः मेल खाता है। इससे भी जैन आगम ग्रन्थों की प्रामाणिकता का पता चलता है। वस्तुतः इस समय तक जैन परम्परा में श्वेताम्बर और दिगम्बर का भेद नहीं मालूम होता। जैन आगमों के विषय, भाषा आदि में जो [[पालि]] त्रिपिटक से समानता है, वह भी इस साहित्य की प्राचीनता को द्योतित करती है।
पंक्ति 82:
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीका,
समाधितन्त्र
भगवती आराधना,
पंक्ति 88:
[[मूलाचार]],
गोम्मतसार,
[[द्रव्यसंग्रह]],
|