"राम शर्मा": अवतरणों में अंतर

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स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद [[भगत सिंह]] को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय [[अरविन्द घोष|श्री अरविन्द]] के किशोर काल की क्रान्तिकारी स्थिति की तरह उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों प्रति असहयोग जाहिर होता था। [[नमक सत्याग्रह|नमक आन्दोलन]] के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे परन्तु, [[समाधि]] स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था पर आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं जबकि, फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे। उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तक सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला। अभी भी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिए अगणित व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं। लगानबन्दी के आकड़े एकत्र करने के लिए उन्होंने पूरे [[आगरा]] जिले का दौरा किया व उनके द्वारा प्रस्तुत वे आँकड़े तत्कालीन [[संयुक्त प्रान्त]] के मुख्यमंत्री श्री [[गोविन्द वल्लभ पंत]] द्वारा गाँधी जी के समक्ष पेश किये गये। बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आँकड़े ब्रिटिश पार्लियामेन्ट भेजे, इसी आधार पर पूरे संयुक्त प्रान्त के लगान माफी के आदेश प्रसारित हुए। कभी जिनने अपनी इस लड़ाई के बदले कुछ न चाहा, उन्हें सरकार ने अपने प्रतिनिधि के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन दिया, जिसे उनने प्रधानमंत्री राहत फण्ड के नाम समपित कर दी। वैरागी जीवन का, सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?
 
१९३५ के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने [[पाण्डिचेरी]], [[गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर]] से मिलने [[शांति निकेतन]] तथा [[बापू]] से मिलने [[साबरमती आश्रम]], [[अहमदाबाद]] गये। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंर्चों पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाय, यह र्निदेश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उन्होंने [[पत्रकारिता]] के क्षेत्र में प्रवेश किया, जब आगरा में 'सैनिक' समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में [[श्रीकृष्णदत्त पालीवाल]] जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया।
 
[[बाबू गुलाब राय]] व पालीवाल जी से सीख लेते हुए सतत स्वाध्यायरत रहकर उनने 'अखण्ड ज्योति' नामक पत्रिका का पहला अंक १९३८ की [[वसंत पंचमी]] पर प्रकाशित किया। प्रयास पहला था, जानकारियाँ कम थीं अतः पुनः सारी तैयारी के साथ विधिवत् १९४० की जनवरी से उनने परिजनों के नाम पाती के साथ अपने हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया, जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु क्रमशः उनके अध्यवसाय, घर-घर पहुँचाने, मित्रों तक पहुँचाने वाले उनके हृदयस्पर्शी पत्रों द्वारा बढ़ती-बढ़ती नवयुग के मत्स्यावतार की तरह आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है।