"महर्षि बुद्ध": अवतरणों में अंतर

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'''महर्षि बुध्द''' भारत के एक महान साधु, धर्मसुधारक ,समाजसुधारक,दर्शनशास्त्री, थे । उन्होंने अपने अनुयायियों का '''संघ''' नामक एक संस्था बनाई । इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था । उनके पिता का नाम शुद्धोदन था तथा माता का नाम महामाया था ।
==कुल==
ईसा पूर्व छठी शताद्धी में उत्तर भारत सर्व-प्रभुत्व सम्पन्न एक राज्य न था । देश अनेक छोटे बड़े राज्यों में बैंटा हुआ था । इनमें से किसी-किसी राज्य पर एक राजा का अधिकार था, किसी-किसी पर किसी एक राजा का अधिकार न था | जी राज्य किसी एक राजा के अधीन थे उनकी संख्या सोलह थी | उनके नाम थे अंग, मगध, काशी. कोसल,(वज्जि), मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पंचाल, मल्ल, सौरसेन, अष्मक, अवन्ति, गन्धार तथा कम्बोज । जिन राज्यो, में किसी एक ‘राजा’ का आधिपत्य न था, वे थे कपिलवस्तु के शाक्य, पावा तथा कुसीनारा के मल्ल, वैशाली के लिच्छवि, मिथिला के विदेह, रामगाम के कोलिय, अल्लकप्प के बुलि, केसपुत के कालाम, कलिंग , पिपलवन के मौर्य, तथा भग्ग (भग) जिनकी राजधानी सिंसुमारगिरि थी। जिन राज्यों पर किसी एक ‘राजा’ का अधिकार था वे जनपद कहलाते थे और जिन राज्यों पर किसी एक ‘राजा’ का अधिकार न था वे ‘संघ’ या ‘गण’ कहलाते थे | कपिलवस्तु के शाक्यों की शासन-पद्धति के बारे में हमे, विशेष जानकारी नहीं है। हम नहीं जानते कि वहाँ प्रजातन्त्र था अथवा कुछ लोगों का शासन था । इतनी बात हम निश्चयपूर्वक कह सकते है कि शाक्यों के जनतन्त्र में कई राज-परिवार थे और वे एक दुसरे के बाद क्रमश: ३शासन करते थे | राज-परिवार का मुखिया राजा कहलाता था । सिद्धार्थ गौतम के जन्म के समय शुद्धोदन की ‘राजा' बनने की बारा थी । शाक्य राज्य भारत के उत्तर-पूर्व कोने में था। यह एक स्वतन्त्र राज्य था । लेकिन आगे चलकर कोशल-नरेश ने इसे अपने शासन-क्षेत्र में शामिल कर लिया था | इस ‘अधिराजिक-प्रभाव-क्षेत्र' में रहने का परिणाम यह था कि कोशल नरेश की स्वीकृति के बिना शाक्य-राज्य स्वतन्त्र रीति से अपने कुछ राजकीय अधिकारों का उपयोग न कर सकता था । उस समय के राज्यों में कोशल एक शक्तिशाली राज्य था। मगध राज्य भी ऐसा ही था । कोशल-नरेश प्रसेनजित् और मगध नरेश बिम्बिसार सिद्धार्थ गौतम के समकालीन थे।
 
 
शाक्यों की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था । हो सकता है कि इस नगर का यह नाम महान बुद्धिवादी मुनि कपिल के ही नाम पर पड़ा ही | कपिलवस्तु में जयसेन नाम का एक शाक्य रहता था। सिंह-हुन उसका पूत्र था । सिंह-हुन का विवाह हुआ था कच्चाना से। उसके पांच पुत्र थे। शुद्धोदन, धौतोदन, शुक़ोदन, शाक्योदन तथा अमितोदन । पांच पुत्रों के अतिरिक्त सिंह-हुन की दो लडकियाँ थीं - अमिता तथा प्रमिता। शुद्धोदन का विवाह महामाया से हुआ था । उसके पिता का नाम अंजन था और मां का सुलक्षणा । अंजन कोलिय था और देवदह नाम की बस्ती में रहता था। शुद्धोदन बड़ा योद्धा था । शुद्धोदन बड़ा धनी आदमी था। उसके पास बहुत बड़े-बड़े खेत थे और नौकर-चाकर भी अनगिनत थे। कहा जाता है कि अपने खेतों की जीतने के लिये उसे एक हजार हल चलवाने पड़ते थे। वह बड़े अमन-चैन की जिन्दगी बसर करता था। उसके कई महल थे।
 
==जन्म ==
एक रात महामाया ने सपने में देखा की एक सुंदर सफेद रंग का हाथी उसके गर्भ में समा गया ।दूसरे दिन महामाया ने शुद्धोदन से अपने स्वप्न की चर्चा की । इस स्वप्न की व्याख्या करने में असमर्थ राजा ने स्वप्न-विद्या में प्रसिद्ध आठ ब्राह्मणी को बुला भेजा । उनके नाम थे राम, ध्वज, लक्ष्मण, मन्त्री, यण्ण, भोज, सुयाम और सुदत्त । राजा ने उनके योग्य स्वागत की तैयारी की । उसने जमीन पर पुष्पवर्षा कराई और उनके लिये सम्मानित आसन बिछवाये । उसने ब्राह्मण के पात्र चांदी-सोने से भर दिये और उन्हें घी, मधु, शक्कर, बढ़िया चावल तथा दूध से पके पकवानों से संतर्पित किया । जब ब्राह्मण खा-पीकर प्रसन्न हो गये, शुद्धोदन ने उन्हें महामाया का स्वप्न कह सुनाया और पूछा -"मुझे इसका अर्थ बताओ ।" ब्राह्माणों का उत्तर था, "महाराज! निश्चित रहें। आपके यहाँ एक पुत्र होगा। यदि वह घर में रहेगा तो वह चक्रवर्ती राजा होगा; यदि गृहत्याग कर संन्यासी होगा तो वह बुद्ध बनेगा - संसार के अन्धकार का नाश करने वाला ।"
 
 
पात्र में तेल धारण किये रहने की तरह महामाया बोधिसत्व की दस महीने तक अपने गर्भ में धारण किये रही | समय समीप आया जान उसने अपने मायके जाने की इच्छा प्रकट की | अपने पति की सम्बोधित करके उसने कहा-- “मै अपने मायके देवदह जाना चाहती हूँ।" शुद्धोदन का उत्तर था-"तुम जानती हो कि तुम्हारी इच्छा की पूर्ति होगी ।" कहारों के कन्धों पर ढोई जाने वाली सुनहरी पालकी में बिठवा कर अनेक सेवक-सेविकाओं के साथ शुद्धोदन ने महामाया को उसके मायके भिजवा दिया । देवदह के मार्ग में महामाया की शाल-वृक्षों के एक उद्यान-वन में से गुजरना था, जिसके कुछ वृक्ष पुष्पित थे कुछ अपुष्पित । यह लुम्बिनी-वन कहलाता था । जिस समय पालकी लुम्बिनी-वन में से गुजर रही थे, सारा लुम्बिनी वन दिव्य चित्र लता की तरह अथवा किसी प्रतापी राजा के सुसज्जित बाजार जैसा प्रतीत होता था । जड से वृक्षों की शाखाओं के छोर तक पेड फलों और फूलों से लदे थे । नाना रंग के भ्रमर-गण गुन्जार कर रहे थे । पक्षी चहचहा रहे थे। यह मनोरम दृश्य देखकर महामाया ने कुछ देर वहाँ रहने की तथा क्रीड़ा करने की इच्छा हुई । उन्होंने पालकी ढोने वालों की आज्ञा दी कि वह उसकी पालकी की ३शाल-उद्यान में ले चले और वहाँ प्रतीक्षा करें । महामाया पालकी से उतरी और एक सुन्दर शाल-वृक्ष की ओर बढ़ी । मन्द पवन बह रहा था, जिससे वृक्ष की शाखायें ऊपर नीचे हिल डोल रही थी । महामाया ने उनमें से एक को पकड़ना चाहा। भाग्यवश एक शाखा काफी नीचे झुक गई । महामाया ने पंजों के बल खड़ी होकर उसे पकड लिया । तुरन्त शाखा ऊपर की ओर उठी और उसका हलका सा झटका लगने से महामाया को प्रसव-वेदना आरम्भ हुई । उस वृक्ष की शाखा पकडे, खडे ही खडे महामाया ने एक पुत्र को जन्म दिया । ५६३ ई. पू. में वैशाख पुर्णिमा के दिन बालक ने जन्म ग्रहण किया । शुद्धोदन और महामाया का विवाह हुए बहुत समय बीत गया था । लेकिन उन्हें कोई सन्तान न हुई थी। आखिर जब पुत्र लाभ हुआ तो केवल शुद्धोदन और उसके परिवार द्वारा बल्कि सभी शाक्यों द्वारा पुत्र जन्मोत्सव बड़ी ही शान-बान और बड़े ही ठाट-बाट के साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मनाया गया । बालक के जन्म के समय अपनी बारी से, शुद्धोदन पर कपिलवस्तु का शासन करने की जिम्मेदारी थी । वह ‘राजा’ कहलाया, और इसीलीये स्वाभाविक तौर पर बालक भी राजकुमार ।
 
 
जिस समय बालक का जन्म हुआ, उस समय हिमालय में असित नाम के एक बड़े ऋषि रहते थे। असित ने देखा कि बालक बत्तीस महापुरुष-लक्षणों तथा अस्सी अनुव्यव्जनों से युक्त है। उन्होंने देखा कि उसका शरीर शुक्र और ब्रह्मा के शरीर से भी अधिक दीप्त है और उसका तेजोमण्डल उनके तेजोमण्डल से लाख गुणा अधिक प्रदीप्त है। उसके मुँह से तुरन्त यह वाक्य निकला - "निस्सन्देह यह अद्भुत पुरुष है।" वे अपने आसन से उठे, दोनों हाथ जोडे और उसके पैरों पर गिर पड़े। उन्होने बालक की परिक्रमा की और उसे अपने हाथों में लेकर विचार-मग्र ही गये।
सिद्धार्थ की माता का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।[4] शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।[4] दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।[4] सुद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।