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: ''गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोग।''
 
तथापि वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई। उसी के परिणामस्वरूप [[उत्कल]] में संत [[जयदेव]], [[महाराष्ट्र]] में [[वारकरी संप्रदाय]] के प्रसिद्ध संत [[नामदेव तथा ज्ञानेदव, पश्चिम में संत सधना तथा बेनी और कश्मीर में संत लालदेव का उद्भव हुआ। इन संतों के बाद प्रसिद्ध संत [[रामानंद]] का प्रादुर्भाव हुआ, जिनकी शिक्षाओं का जनसमाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। यह इतिहाससिद्ध सत्य है कि जब किसी विकसित विचारधारा का प्रवाह अवरुद्ध करके एक दूसरी विचारधारा का समर्थन एवं प्रचार किया जाता है तब उसके सिद्धांतों के युक्तियुक्त खंडन के साथ उसकी कतिपय लोकप्रिय एवं लोकोपयोगी विशेषताओं को आत्मीय भी बना लिया जाता है। जगद्गुरु शंकर, राघवानंद, रामानुज, रामानंद आदि सबकी दृष्टि यही रही है। श्रीसंप्रदाय पर नाथपंथ का प्रभाव पड़ चुका था, वह उदारतावादी हो गया था। व्यापक लोकदर्शन के फलस्वरूप स्वामी रामानंद की दृष्टि और भी उदार हो गई थी। इसीलिए उनके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शिष्यों में जुलाहे, रैदास, नाई, डोम आदि सभी का समावेश देखा जाता है। इस काल में जो सत्यभिनिवेशी भक्त या साधु हुए उन्होंने सत् के ग्रहणपूर्वक असत् पर निर्गम प्रहार भी किए। प्राचीन काल के धर्म की जो प्रतीक प्रधान पद्धति चली आ रही थी, सामान्य जनता को, उसका बोध न होने के कारण, कबीर जैसे संतों के व्यंग्यप्रधान प्रत्यक्षपरक वाग्बाण आकर्षक प्रतीत हुए। इन संतों में बहुतों ने अपने सत्कर्तव्य की इतिश्री अपने नाम से एक नया "पंथ" निकालने में समझी। उनकी सामूहिक मानवतावादी दृष्टि संकीर्णता के घेरे में जा पड़ी। इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक नाना पंथ एक के बाद एक अस्तित्व में आते गए। सिक्खों के आदि युग नानकदेव ने (सं. 1526-95) नानकपंथ, दादू दयाल ने (1610 1660) दादूपंथ, कबीरदास ने कबीरपंथ, बावरी ने बावरीपंथ, हरिदास (17वीं16 वीं शती उत्तरार्ध) ने निरंजनी संप्रदाय और मलूकदास ने मलूकपंथ को जन्म दिया। आगे चलकर बाबालालजी संप्रदाय, धानी संप्रदाय, साथ संप्रदाय, धरनीश्वरी संप्रदाय, दरियादासी संप्रदाय, दरियापंथ, शिवनारायणी संप्रदाय, गरीबपंथ, रामसनेही संप्रदाय आदि नाना प्रकार के पंथों एवं संप्रदायों के निर्माण का श्रेय उन संतों को है जिन्होंने सत्यदर्शन एवं लोकोपकार का व्रत ले रखा था और बाद में संकीर्णता को गले लगाया। जो संत निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश देते हुए राम, कृष्ण आदि को साधारण मनुष्य के रूप में देखने के आग्रही थे वे स्वयं ही अपने आपको राम, कृष्ण की भाँति पुजाने लगे। संप्रदायपोषकों ने अपने आदि गुरु को ईश्वर या परमात्मा सिद्ध करने के लिए नाना प्रकार की कल्पित आख्यायिकाएँ गढ़ डालीं। यही कारण है कि उन सभी निर्गुणिए संतों के वृत्त अपने पंथ या संप्रदाय की पिटारी में ही बंद होकर रह गए।
 
इधर साहित्य में जब से शोधकार्य ने बल पाया है तब से साहित्यग्रंथों के कतिपय पृष्ठों में उनकी चर्चा हो जाती है, जनसामान्य से उनका कोई संपर्क नहीं रह गया है। इन संप्रदायों में दो एक संप्रदाय ऐसे भी देख पड़े, जिन्होंने अपने जीवन में [[भक्ति]] को गौण किंतु [[कर्म]] को प्रधानता दी। [[सतनामी|सत्तनामी संप्रदायवालों]] ने मुगल सम्राट् [[औरंगजेब]] के विरुद्ध विद्रोह का झंडा ऊपर लहराया था (सवत 1729 विक्रमी)। [[सिख धर्म|नानकपंथ]] के नवें गुरु [[गुरु गोविन्द सिंह|श्री गोविंद सिंह]] ने अपने संप्रदाय को सेना के रूप में परिणम कर दिया था। इसी संतपरंपरा में आगे चलकर [[राधास्वामी संप्रदाय]] (19वीं शती) अस्तित्व में आया। यह संतपरंपरा [[राजा राममोहन राय]] (ब्रह्मसमाज, 1835-90), [[स्वामी दयानन्द सरस्वती]] (संवत् 1881-1941 विक्रमी, [[आर्यसमाज]]), [[स्वामी रामतीर्थ]] (सं. 1930-63), तक चली आई है। [[महात्मा गांधी]] को इस परंपरा की अंतिम कड़ी कहा जा सकता है।