"विदिशा": अवतरणों में अंतर

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विदिशा में जन्में श्री [[कैलाश सत्यार्थी]] को 2014 में [[नोबेल शांति पुरस्कार]] मिला।<ref name="nbt">{{cite web | url= http://hindi.economictimes.indiatimes.com/india/know-about-nobel-prize-winner-kailash-satyarthi/articleshow/44772125.cms| title= जानिए शांति का नोबेल जीतने वाले कैलाश सत्यार्थी को| publisher = नवभारत टाईम्स| date= 10 अक्टूबर 2014| accessdate= 11 अक्टूबर 2014}}</ref>
 
विदिशा में ग्राम पंचायत बूढ़ी बागरोद के सचिव ज्ञानसिंह कुर्मी अत्यंत भ्रष्टाचारी हैं जो किसी भी आवेदन पत्र का जवाब देने के लिए समर्थ नहीं है अगर कोई जवाब मांगता है तो उसको धमकाते हैं और गंदगी एवं कागजी कार्यवाही के नाम पर ढकोसला में नंबर वन आता है ।
 
== नामकरण ==
प्राचीन नगर विदिशा तथा उसके आस-पास के क्षेत्र को अपनी भौगोलिक विशिष्टता के कारण एक साथ दशान या दशार्ण (दस किलो वाला) क्षेत्र की संज्ञा दी गई है। यह नाम छठी शताब्दी ई. पू. से ही चला आ रहा है। इस नाम की स्मृति अब भी बेतवा की सहायक नदी धसान नदी के नाम में अवशिष्ट है। कुछ विद्वान इसका नामाकरण दशार्ण (धसान) नदी के कारण मानते हैं, जो दस छोटी-बड़ी नदियों के समवाय- रूप में बहती थी। जहाँ प्राचीन संस्कृत- साहित्य में विदिशा का नाम वैदिस, वेदिश या वेदिसा मिलता है, वहीं पाली ग्रंथों में इसे वेसनगर, वैस्सनगर, वैस्यनगर या विश्वनगर कहा गया है। कुछ विद्धानों का मानना है कि विविध दिशाओं को यहाँ से मार्ग जाने के कारण ही इस नगर का नाम विदिशा पड़ा।
 
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""विविधा दिशा अन्यत्र इति विदिशा''।
</blockquote>
 
पुराणों में इसकी चर्चा भद्रावती या भद्रावतीपुरम् के रूप में है। जैन- ग्रंथों में इसका नाम भड्डलपुर या भद्दिलपुर मिलता है। मध्ययुग आते- आते इसका नाम सूर्य (भैलास्वामीन) के नाम पर भेल्लि स्वामिन, भेलसानी या भेलसा हो गया। संभवतः पढ़ने के क्रम में हुई किसी गलतफहमी के कारण ११ शताब्दी में अलबरुनी ने इसे "महावलिस्तान' के नाम से संबोधित किया है। १७ वीं सदी में औरंगजेब के शासन काल में इसका नाम आलमगीरपुर रखा गया। सन् १९४७ ई. तक सरकारी रिकॉडाç में इसे "परगणे आलमगीरपुर' लिखा जाता रहा। परंतु ब्रिटिश काल में लोगों में भेलस्वामी या भेलसा नाम ही प्रचलित रहा। बाद में सन् १९५२ ई. में जनआग्रह पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा इस स्थान का तत्कालीन पुराना नाम विदिशा घोषित कर दिया।
 
== इतिहास ==
{{main|विदिशा का इतिहास}}
विदिशा भारतवर्ष के प्रमुख प्राचीन नगरों में एक है। जो हिंदू,बौद्ध तथा जैन धर्म के समृद्ध केन्द्र के रूप में जानी जाती है। जीर्ण अवस्था में बिखरी पड़ी कई खंडहरनुमा इमारतें यह बताती है कि यह क्षेत्र ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक दृष्टि कोण से मध्य प्रदेश का सबसे धनी क्षेत्र है। धार्मिक महत्व के कई भवनों को मुस्लिम आक्रमणकारियों ने या तो नष्ट कर दिया या मस्जिद में बदल दिया। महिष्मती (महेश्वर) के बाद विदिशा ही इस क्षेत्र की सबसे पुराना नगर माना जाता है। महिष्मती नगरी के ह्रास होने के बाद विदिशा को ही पूर्वी मालवा की राजधानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसकी चर्चा वैदिक साहित्यों में कई बार मिलता है।
यहाँ इतिहास ने अनेक पीढियों तक अपने चिह्न छोड़े। आज संपूर्ण विदिशा- मंडल पर्यटकों एवं दर्शकों की रुचि के ऐतिहासिक एवं दर्शनीय प्राचीन स्मारकों से भरा पड़ा है।
 
=== महाभारत, रामायण में विदिशा ===
 
इस नगर का सबसे पहला उल्लेख महाभारत में आता है। इस पुर के विषय में रामायण में एक परंपरा का वर्णन मिलता है जिसके अनुसार रामचन्द्र ने इसे शत्रुघ्न को सौंप दिया था। शत्रुघ्न के दो पुत्र उत्पन्न हुये जिनमें छोटा सुबाहु नामक था। उन्होंने इसे विदिशा का शासक नियुक्त किया था। थोड़े ही समय में यह नगर अपनी अनुकूल परिस्थितियों के कारण पनप उठा। भारतीय आख्यान, कथाओं एवं इतिहास में इसका स्थान निराले तरह का है। इस नगर की नैसर्गिक छटा ने कवियों और लेखकों को प्रेरणा प्रदान की। वहाँ पर कुछ विदेशी भी आये और इसकी विशेषताओं से प्रभावित हुये। कतिपय बौद्ध ग्रन्थों के वर्णन से लगता है कि इस नगर का सम्बन्ध संभवत: किसी समय अशोक के जीवन के साथ भी रह चुका था। इनके अनुसार इस नगर में देव नामक एक धनीमानी सेठ रहता था जिसकी देवा नामक सुन्दर पुत्री थी। अपने पिता के जीवनकाल में अशोक उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। पाटलिपुत्र से इस नगर को जाते समय वह विदिशा में रुक गया थां देवा के रूप एवं गुणों से वह प्रभावित हो उठा और उससे उसने विवाह कर लिया। इस रानी से महेन्द्र नामक आज्ञाकारी पुत्र और संघमित्रा नामक आज्ञाकारिणी पुत्री उत्पन्न हुई। दोनों ही उसके परम भक्त थे और उसे अपने जीवन में बड़े ही सहायक सिद्ध हुये थे। संघमित्रा को बौद्ध ग्रन्थों में विदिशा की महादेवी कहा गया है।
 
=== कालिदास के मेघदूत में ===
 
इस नगर का वर्णन कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ [[मेघदूत]] में किया है। अनके अनुसार यहाँ पर दशार्ण देश की राजधानी थी। प्रवासी यक्ष अपने संदेशवाहक मेघ से कहता है- अरे मित्र! सुन! जब तू दशार्ण देश पहुँचेगा, तो तुझे ऐसी फुलवारियाँ मिलेंगी, जो फूले हुये केवड़ों के कारण उजली दिखायी देंगी। गाँव के मन्दिर कौओं आदि पक्षियों के घोंसलों से भरे मिलेंगे। वहाँ के जंगल पकी हुई काली जामुनों से लदे मिलेंगे और हंस भी वहाँ कुछ दिनों के लिये आ बसे होगें।
हे मित्र! जब तू इस दशार्ण देश की राजधानी विदिशा में पहुँचेगा, तो तुझे वहाँ विलास की सब सामग्री मिल जायेगी। जब तू वहाँ सुहावनी और मनभावनी नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती (बेतवा) के तट पर गर्जन करके उसका मीठा जल पीयेगा, तब तुझे ऐसा लगेगा कि मानो तू किसी कटीली भौहों वाली कामिनी के ओठों का रस पी रहा है।
वहाँ तू पहुँच कर थकावट मिटाने के लिये 'नीच' नाम की पहाड़ी पर उतर जाना। वहाँ पर फूले हुय कदम्ब के वृक्षों को देखकर ऐसा जान पड़ेगा कि मानों तुझसे भेंट करने के कारण उसके रोम-रोम फरफरा उठे हों। उस पहाड़ी की गुफाओं से उन सुगन्धित पदार्थों की गन्ध निकल रही होगी, जिन्हें वहाँ के रसिक वेश्याओं के साथ रति करते समय काम में लाते हैं। इससे तुझे यह भी पता चल जायेगा कि वहाँ के नागरिक कितनी स्वतंत्रता से जवानी का आनन्द लेते हैं। कालिदास के इस वर्णन से लगता है कि वे इस नगर में रह चुके थे और इस कारण वहाँ के प्रधान स्थानों तथा पुरवासियों के सामाजिक जीवन से परिचित थे।
 
=== मालविकाग्निमित्रम् में ===
शुंगों के समय में इस नगर का राजनीतिक महत्त्व बढ़ गया। साम्राज्य के पश्चिमी हिस्सों की देख-रेख के लिये वहाँ एक दूसरी राजधानी भी स्थापित की गई। वहाँ शुंग-राजकुमार अग्निमित्र सम्राट के प्रतिनिधि (वाइसराय) के रूप में रहने लगा। यह वही अग्निमित्र है, जो कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' नामक नाटक का नायक है। इस ग्रन्थ में उसे वैदिश अर्थात् विदिशा का निवासी कहा गया है। उसका पुत्र वसुमित्र यवनों से लड़ने के लिये सिन्धु नदी के तट पर भेजा गया था। देवी धारिणी, जो अग्निमित्र की प्रधान महिषी थीं उस समय विदिशा में ही थीं। 'मालविकाग्निमित्रम्' में अपने पुत्र की सुरक्षा के लिये उन्हें अत्यन्त व्याकुल दिखाया गया है।
शुंगों के बाद विदिशा में नाग राजा राज्य करने लगे। इस नाग-शाखा का उल्लेख पुराणों में हुआ है। इसी वंश में गणपतिनाग हुआ था, जिसके नाम का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में हुआ है। वह बड़ा पराक्रमी लगता है। उसके राज्य में मथुरा का भी नगर सम्मिलित था। वहाँ से उसके सिक्के मिले हैं। कुछ लोगों का अनुमान है कि जब समुद्रगुप्त उत्तरी भारत में दिग्विजय कर रहा था उस समय वहाँ के नव राजाओं ने उसके विरुद्ध एक गुटबन्दी की, जिसका नायक गणपतिनाग था। ऐसा गुट सचमुच बना या नहीं, इस विषय में हम बहुत निश्चित तो नहीं हो सकते। पर इतना स्पष्ट है कि उस समय के राजमंडल में गणपतिनाग का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता था।
भरहुत के लेखों से लगता है कि विदिशा के निवासी बड़े ही दानी थे। वहाँ के एक अभिलेख के अनुसार वहाँ का रेवतिमित्र नामक एक नागरिक भरहुत आया हुआ था। उसकी भार्या चंदा देवी ने वहाँ पर एक स्तम्भ का निर्माण किया था। भरहुत के अन्य लेखों में विदिशा के कतिपय उन नागरिकों के नाम मिलते हैं, जिन्होंने या तो किसी स्मारक का निर्माण किया था या वहाँ के मठों के भिक्षुसंघ को किसी तरह का दान दिया था। इनमें भूतरक्षित, आर्यमा नामक महिला तथा वेणिमित्र की भार्या वाशिकी आदि प्रमुख थे।
कला के क्षेत्र में इस नगर का महत्त्व कुछ कम नहीं था, पेरिप्लस नामक विदेशी महानाविक के अनुसार वहाँ हाथी-दाँत की वस्तुएँ उत्तर कोटि की बनती थीं। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार वहाँ की बनी हुई तेज़ धार की तलवारों की बड़ी माँग थी। इस स्थान सें शुंग-काल का बना हुआ एक गरुड़-स्तम्भ मिला है, जिससे ज्ञात होता है कि वहाँ पर वैष्णव धर्म का विशेष प्रचार था। इस स्तम्भ पर एक लेख मिलता है जिसके अनुसार तक्षशिला से हेलिओडोरस नामक यूनानी विदिशा आया था। वह वैष्णव मतावलम्बी था और इस स्तम्भ का निर्माण उसी ने कराया था। सांस्कृतिक *दृष्टि से यह लेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। यह इस बात का परिचायक है कि विदेशियों ने भी भारतीय धर्म और संस्कृति को अपना लिया था। विदिशा में इसी तरह और भी भागों से लोग आये होंगे। इस धर्मकेन्द्र में अपने आध्यात्मिक लाभ के लिये लोगों ने स्मारकों का निर्माण किया होगा। विदिशा को स्कन्द पुराण में तीर्थस्थान कहा गया है।
हेलिओडोरस द्वारा निर्मित विदिशा का उपर्युक्त गरुड़-स्तम्भकला का एक अच्छा नमूना है। वह मूलत: अशोक के ही स्तम्भों के आदर्श पर बना था। पर साथ ही उसमें कुछ मौलिक विशेषतायें भी हैं। इसका सबसे निचला भाग आठ कोनों का है। इसी तरह मध्य भाग सोलह कोने का और ऊपरी भाग बत्तीस कोने का है। यह विशेषता हमें अशोक के स्तम्भों में नहीं दिखाई देती। इससे लगता है कि विदिशा के कलाकार निपुण थे और उनकी प्रतिभा मौलिक कोटि की थी।
 
== भूगोल तथा जलवायु ==
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{{main|विदिशा की जलवायु}}
इसकी भौगोलिक स्थिति बड़ी ही महत्त्वपूर्ण थी। पाटलिपुत्र से कौशाम्बी होते हुये जो व्यापारिक मार्ग उज्जयिनी (आधुनिक उज्जैन) की ओर जाता था वह विदिशा से होकर गुजरता था। यह वेत्रवती नदी के तट पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक बेतवा नदी के साथ की जाती है। बेतवा की सहायक नदी धसान नदी के नाम में अवशिष्ट है। कुछ विद्वान इसका नामाकरण दशार्ण नदी (धसान) के कारण मानते हैं, जो दस छोटी-बड़ी नदियों के समवाय- रूप में बहती थी। इस क्षेत्र की जलवायु अत्यंत स्वास्थ्यवर्द्धक है। कर्क रेखा के आसपास स्थित इस क्षेत्र में न अधिक ठंड पड़ती है, न ही अधिक गर्मी। बारिश साधारणतया ४० इंच होती है। एक किवदंती के अनुसार यहाँ की अजस्र जल देने वाली बदली लंगड़ी है। अतः उन पर दया करके बड़े-बड़े बादल यहाँ जल बरसा जाते हैं। यहाँ कभी सूखा नहीं पड़ता। विदिशा के समीप से ही विंध्य पर्वतों की श्रेणियों का सिलसिला पूर्व से पश्चिम की ओर गया है। ये श्रेणियाँ न तो अधिक ऊँची है, न ही लंबी।<ref>[http://www.fallingrain.com/world/IN/35/Vidisha.html Falling Rain Genomics, Inc - Vidisha]</ref>
 
== वन संपदा ==
{{main|विदिशा की वन संपदा }}
विंध्य पर्वत के आस-पास चारों तरफ सैकड़ों मीलों तक उपजाऊ कृषि भूमि है, जो बहुत उपजाऊ मानी जाती है। यहाँ प्राप्त होने वाली उपजाऊ काली मिट्टी की सतह तो कहीं- कहीं ३०- ४० फीट तक गहरी है। यहाँ गेहूँ तथा चना का उत्पादन विशेष रूप से होता है, लेकिन धान, कपास व बाजरा बिल्कुल नहीं उपजाए जाते।
 
== दर्शनीय स्थल ==
ऐतिहासिक नगरी होने के कारण विदिशा की प्राचीन भवन और स्थापत्य दर्शनीय हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ प्राकृतिक स्थल और धार्मिक महत्व के स्थान भी देखने के योग्य हैं। विदिशा के निकटवर्ती छोटे छोटे नगर अपने में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर समेटे हुए हैं। अतः इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए इनको देखना भी रुचिकर है। प्राकृतिक स्थलों में [[लुहांगी]] गिरिश्रेणी विदिशा नगर के मध्य रेलवे स्टेशन के निकट ही स्थित है जहाँ से रायसेन का किला, साँची की पहाड़ियाँ, उदयगिरि की श्रेणियाँ, वैत्रवती नदी व उनके किनारों पर लगी वृक्षों की श्रृंखलाएँ अत्यंत सुदर दिखती है। [[चरणतीर्थ, विदिशा|चरणतीर्थ]] में च्वयन ॠषि ने की तपस्थली तथा संगम दर्शनीय हैं। ऐतिहासिक भवनों में [[विदिशा का किला]] और [[विजय मंदिर, विदिशा]] पर्यटकों के लिए रोचक हैं। इसे अतिरिक्त ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के अनेक छोटे नगर विदिशा के पास बसे हुए है जो पर्यटकों को लुभाते हैं। इनमें [[बेसनगर]], जिसे पाली बौद्ध ग्रंथों में वेस्सागर कहा गया है, [[भद्दिलपुर]] जो जैनियों के दसवें तीथर्थंकर भगवान शीतलनाथ की जन्मभूमि है, [[उदयगिरि की गुफाएँ]] जो ४वीं- ५वीं सदी पुरानी हैं पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनती हैं। कई इमारतें व उनसे जुड़ी ऐतिहासिक घटनाओं के समेटे [[सिरोंज]], नंदवंशी अहीर ठाकुरों की भूमि [[लटेरी]], परमारवंशीय राजा उदयदित्य के स्वर्णकाल का प्रतीक [[उदयपुरा, विदिशा|उदयपुरा]], पहाड़ी की उपत्यका में बसा [[ग्यारसपुर]], ऐतिहासिक नगर [[शम्शाबाद]], बौद्ध स्तूपों के लिए जाना जाने वाला [[साँची]], रंगाई-छपाई कार्य के लिए प्रसिद्ध [[बासौदा|गंज बासौदा]], रमणीय सरोवर के निकट बसा [[बढ़ोह]] और सातखनी हवेली के लिए प्रसिद्ध [[मरखेड़ा]] विदिशा जिले के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल हैं।
 
=== प्राकृतिक स्थल ===
====लोह्याद्रि (लुहांगी) गिरिश्रेणी====
 
{{main|लुहांगी }}
विदिशा नगर के मध्य रेलवे स्टेशन के निकट ही अत्यन्त कठोर बलुआ पत्थर से निर्मित यह स्थान १७० फीट ऊँचा है। इसे अब "राजेन्द्र गिरि' के नाम से जाना जाता है। यह अत्यंत मनोरम स्थान है। इसके चारों ओर रायसेन का किला, साँची की पहाड़ियाँ, उदयगिरि की श्रेणियाँ, वैत्रवती नदी व उनके किनारों पर लगी वृक्षों की श्रृंखलाएँ अत्यंत सुदर दिखती है। पहले की तरह आज भी यहाँ मेला लगता है। इस स्थान का इतिहास महाभारत कालीन है। अश्वमेघ-यज्ञ के समय पाण्डवों ने इस पहाड़ी पर अधिपत्य कर लिया था। जब यहाँ के राजा ने अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा पकड़ लिया, तब उसके रक्षार्थ आये कृष्ण, भीम व कर्ण के पुत्रों ने राजा से युद्ध कर उन्हें पराजित किया।
 
====चरणतीर्थ====
{{main|चरणतीर्थ, विदिशा}}
विदिशा में स्थित सिद्ध महात्माओं की तपस्थली रही, यह भूमि पर्यटन की दृष्टि से सुंदर स्थान है। एक अवधारणा के अनुसार भगवान राम के चरण पड़ने के कारण इस तीर्थ का नाम चरणतीर्थ पड़ा, लेकिन साहित्यिक प्रमाण बताते हैं कि अयोध्या से लंका जाने के मार्ग में यह स्थान नहीं था। यह धारणा पूर्णरुपेण मि है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह स्थान भृगुवंशियों का केंद्र स्थल था। इस कुंड में च्वयन ॠषि ने तपस्या की थी। पहले इसका नाम च्वयनतीर्थ था, जो कालांतर में चरणतीर्थ के नाम से जाना जाने लगा।
 
=== स्थापत्य ===
====किला====
 
{{main|विदिशा का किला}}
यह किला पत्थरों के बड़े-बड़े खंडों से बना हुआ है। इसकी चारों तरफ बड़े-बड़े दरवाजे का प्रावधान था। चारों तरफ स्थित किले की मोटी दीवार पर जगह-जगह पर तोप रखने की व्यवस्था थी। किले के दक्षिण पूर्व के दरवाजे की तरफ अभी भी कुछ तोपें देखी जा सकती है। इस किला का निर्माणकाल स्पष्ट नहीं है। फणनीसी दफ्तर के रिकार्ड के अनुसार इसे औरंगजेब द्वारा बनवाया गया कहा गया है, लेकिन कई विद्धानों का यह मानना है कि किला बहुत प्राचीन है। एक संभावना के अनुसार इसे ई. पू. सदी के पशुओं के एक धनी व्यापारी साह भैंसा साह ने बनवाया था। इसी वंश के साह की पुत्री से अशोक का विवाह हुआ था।
 
====विजय मंदिर====
{{main|विजय मंदिर, विदिशा}}
किले की सीमा के अंदर पश्चिम की तरफ अवस्थित इस मंदिर के नाम पर ही विदिशा का नाम भेलसा पड़ा। सर्वप्रथम इसका उल्लेख सन् १०२४ में के साथ आये विद्धान अलबरुनी ने किया है। अपने समय में यह देश के विशालतम मंदिरों में से एक माना जाता था। साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार यह आधा मील लंबा- चौड़ा था तथा इसकी ऊँचाई १०५ गज थी, जिससे इसके कलश दूर से ही दिखते थे। दो बाहरी द्वारों के भी चिंह मिले हैं। सालों भर यात्रियों का मेला लगा रहता था तथा दिन- रात पूजा आरती होती रहती थी। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण चालुक्य वंशी राजा कृष्ण के प्रधानमंत्री वाचस्पति ने अपनी विदिशा विजय के उपरांत किया। नृपति के सूर्यवंशी होने के कारण भेल्लिस्वामिन (सूर्य) का मंदिर बनवाया गया। इस भेल्लिस्वामिन नाम से ही इस स्थान का नाम पहले भेलसानी और कालांतर में भेलसा पड़ा। अपनी विशालता, प्रभाव व प्रसिद्धि के कारण यह मंदिर हमेशा local pशासकों के आँखों का कांटा बना रहा। कई बार इसे लूटा गया और तोड़ा गया और वहाँ के श्रद्धालुगणों ने हर बार उसका पुननिर्माण कर पूजनीय बना डाला।
 
====उदयगिरि====
 
{{main|उदयगिरि}}
[[चित्र:Udaygiri-caves-915 m.jpg|right|thumb|200px|उदयगिरि ‎|कड़ी=Special:FilePath/Udaygiri-caves-915_m.jpg]] उदयगिरि विदिशा से वैसनगर होते हुए पहुँचा जा सकता है। नदी से यह गिरि लगभग १ मील की दूरी पर है। पहाड़ी के पूरब की तरफ पत्थरों को काटकर गुफाएँ बनाई गई हैं। इन गुफाओं में प्रस्तर- मूर्तियों के प्रमाण मिलते हैं, जो भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है। उत्खनन से प्राप्त ध्वंसावशेष अपनी अलग कहानी कहते हैं। उदयगिरि को पहले नीचैगिरि के नाम से जाना जाता था। कालिदास ने भी इसे इसी नाम से संबोधित किया है। १० वीं शताब्दी में जब विदिशा धार के परमारों के हाथ में आ गया, तो राजा भोज के पौत्र उदयादित्य ने अपने नाम से इस स्थान का नाम उदयगिरि रख दिया। उदयगिरि में कुल २० गुफाएँ हैं। इनमें से कुछ गुफाएँ ४वीं- ५वीं सदी से संबद्ध है। गुफा संख्या १ तथा २० को जैन गुफा माना जाता है। गुफाओं की प्रस्तर की कटाई कर छोटे- छोटे कमरों के रूप में बनाया गया है। साथ- ही- साथ मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण कर दी गई हैं। वर्तमान में इन गुफाओं में से अधिकांश मूर्ति- विहीन गुफाएँ रह गई हैं। ऐसा यहाँ पाये जाने वाले स्थानीय पत्थर के कारण हुआ है। पत्थर के नरम होने के कारण खुदाई का काम आसान था, लेकिन साथ- ही- साथ यह मौसमी प्रभावों को झेलने के लिए उपयुक्त नहीं है।
 
=== समीपवर्ती ऐतिहासिक स्थल ===
====बेसनगर====
{{main|बेसनगर}}
बेसनगर मध्यभारत का एक प्राचीन नगर है, जिसे पाली बौद्ध ग्रंथों में वेस्सागर तथा संस्कृत साहित्य में विदिशा के नाम से पुकारा गया है। भिलसा रेलवे स्टेशन से पश्चिम की तरफ करीब २ मील की दूरी पर स्थित, यह स्थान पुरातत्वेत्ताओं की सांस्कृतिक भूमि कही जा सकती है। यह वेत्रवती और बेस नदी से घिरा हुआ है तथा शेष दो तरफ की भूमि पर प्राचीर बनाकर नगर को एक किले का रूप दे दिया था। प्राचीन काल का वैभव संपन्न यह नगर, अब टूटी- फूटी मूर्तियाँ व कलायुक्त भवनों का खंडहर मात्र रह गया है। यहाँ पाये जाने वाले भग्नावशेष ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ११ वीं शताब्दी तक की कहानी कहते हैं। अब भी इस स्थान पर ही एक तरफ "बेस' नामक ग्राम बचा हुआ है।
 
====हेलिओडोरस का गरुड़ स्तम्भ====
 
'''हेलिओडोरस स्तम्भ''' (Heliodorus pillar) [[भारत]] के [[मध्य प्रदेश]] के [[विदिशा]] जिले में आधुनिक [[बेसनगर]] के पास स्थित पत्थर से निर्मित प्राचीन स्तम्भ है। इसका निर्माण ११० ईसा पूर्व हेलिओडोरस (Heliodorus) ने कराया था जो भारतीय-यूनानी राजा [[अंतलिखित]] (Antialcidas) का शुंग राजा भागभद्र के दरबार में दूत था। य स्तम्भ [[सांची का स्तूप|साँची के स्तूप]] से केवल ५ मील की दूरी पर स्थित है।
 
यह स्तंभ लोकभाषा में खाम बाबा के रूप में जाना जाता है। एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया, यह स्तंभ ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। स्तंभ पर पाली भाषा में [[ब्राम्ही लिपि]] का प्रयोग करते हुए एक [[अभिलेख]] मिलता है। यह अभिलेख स्तंभ इतिहास बताता है। नवें शुंग शासक महाराज भागभद्र के दरबार में [[तक्षशिला]] के यवन राजा [[अंतलिखित]] की ओर से दूसरी सदी ई. पू. हेलिओडोरस नाम का [[राजदूत]] नियुक्त हुआ। इस राजदूत ने [[वैदिक धर्म]] की व्यापकता से प्रभावित होकर भागवत धर्म स्वीकार कर लिया।
 
====सिरोंज====
{{main|सिरोंज}}
यह स्थान विदिशा से ५० मील की दूरी पर एक तहसील है। मध्यकाल में इस स्थान का विशेष महत्व था। कई इमारतें व उनसे जुड़ी ऐतिहासिक घटनाएँ इस बात का प्रमाण है। सिरोंज के दक्षिण में स्थित पहाड़ी पर एक प्राचीन मंदिर है। इसे उषा का मंदिर कहा जाता है। इसी नाम के कारण कुछ लोग इसे बाणासुर की राजधानी श्रोणित नगर के नाम से जानते थे। संभवतः यही शब्द बिगड़कर कालांतर में "सिरोंज' हो गया। नगर के बीच में पहले एक बड़ी हवेली हुआ करती थी, जो अब ध्वस्त हो चुकी है, इसे रावजी की हवेली के नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण संभवतः मराठा- अधिपत्य के बाद ही हुआ होगा। ऐसी मान्यता है कि यह मल्हाराव होल्कर के प्रतिनिधि का आवास था।
 
====लटेरी====
{{main|लटेरी}}
यह स्थान [[सिरोंज]] से कुछ मील की दूरी पर विदिशा की एक तहसील का मुख्यालय है। एक समय यह स्थान घनघोर जंगलों के महावन से घिरा हुआ था। यहाँ प्राचीन नंद काल के समय के नंदवंशी अहीर ठाकुर बसे हुए हैं।
 
====उदयपुरा====
{{main|उदयपुरा, विदिशा}}
यह स्थान बीना और विदिशा के बीच, विदिशा से लगभग २० कोस की दूरी पर स्थित है। वर्तमान में एक छोटे से गाँव के रूप में जाने जाना वाला यह स्थान ऐतिहासिक समय में विशेष महत्व का था। धार राज्य के परमारवंशीय राजा उदयदित्य के समय में इसका काफी विकास हुआ। यहाँ मिले कई हिंदु व मुस्लिम स्मारकों का अस्तित्व इस स्थान की प्राचीनता का प्रमाण है।
 
====ग्यारसपुर====
{{main|ग्यारसपुर}}
संपूर्ण दशार्ण क्षेत्र में ग्यारसपुर को विदिशा के बाद सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान कहा जाता है। यह विदिशा से पूर्वोत्तर दिशा में २३ मील की दूरी पर एक पहाड़ी की उपत्यका में बसा हुआ है। इसके इर्द- गिर्द मिले अवशेषों से पता चलता है कि यहाँ बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण तीनों संप्रदायों का प्रभाव रहा है।
 
====शमसाबाद====
{{main|शमसाबाद, विदिशा}}
शमशाबाद का पुराना नाम होहर (पहाड़ी) था, जिसपर बड़गू ठाकुरों का कब्जा था१ शम्स खाँ ने पहले इनसे मित्रता की तथा बाद में धोखे से मार डाला। इस प्रकार १७ वीं सदी में शम्स खाँ के नेतृत्व में मुसलमानों ने इसपर कब्जा कर लिया। उसी के नाम पर इसका नाम शमशाबाद पड़ा। उसने एक छोटी सी गढ़ी बनाई, जिसकी पूर्वी द्वार नदी की ओर थी तथा इसके उत्तरी द्वार के तरफ कानूनगोओं की हवेली थी। दोनों दरवाजे २० वीं सदी के तीसरे दशक में गिर गये।
 
====सांची====
{{main|सांची}}
विश्वप्रसिद्ध बौद्ध स्तूपों के लिए जाना जाने वाला साँची, विदिशा से ४ मील की दूरी पर ३०० फीट ऊँची पहाड़ी पर बसा है। प्रज्ञातिष्य महानायक थैर्यन के अनुसार यहाँ के बड़े स्तूप में स्वयं भगवान बुद्ध के तथा छोटे स्तूपों में भगवान- बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत (सारिपुत्र) तथा महामौद्ग लायन समेत कई अन्य बौद्ध भिक्षुओं के धातु रखे हुए हैं। निर्माण- कार्य में राजा तथा श्रद्धालु- जनता की सहभागिता रही है।
 
====बढ़ोह====
{{main|बढ़ोह}}
बढ़ोह [[पठारी]] वास्तव में पास- पास लगे दो गाँव है। यह कुल्हार रेलवे स्टेशन से १२ मील की दूरी पर पुरब की तरफ एक छोटी- सी पहाड़ी की तलहटी में बसा है। दोनों गाँवों के मध्य में एक रमणीय सरोवर है। बढ़ोह के दक्षिण में एक दूसरा सरोवर है। इस सरोवर के चारों तरफ मिले कई मंदिरों के अवशेष यह प्रमाणित करते हैं कि मध्यकाल में यह एक समृद्ध नगर हुआ करता था तथा निकट स्थित पठारी, जहाँ कई अन्य स्मारक मिले हैं, इसी नगर का एक हिस्सा था। स्थानीय लोगों की मान्यता के अनुसार इस नगर का प्राचीन नाम बटनगर था। लेकिन इस बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला है। यहाँ के मध्यकालीन के स्थानीय राजा तथा पुराने स्मारकों के निर्माता के बारे में कम जानकारी प्राप्त होती है।
 
इसके अतिरिक्त [[भद्दिलपुर]], [[बासौदा]] तथा [[मरखेड़ा]] स्थल भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
 
== सन्दर्भ ==