"श्रमण परम्परा": अवतरणों में अंतर

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<ref>{{cite web |title=shramana movement |website=wikipedia}}</ref>'''श्रमण परम्परा''' [[भारत]] में प्राचीन काल से [[जैन धर्म|जैन]] , [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] तथा कुछ अन्य पन्थों में पायी जाती है।<ref>{{cite web|url=https://indianexpress.com/article/explained/govind-pansare-mm-kalburgi-gauri-lankesh-murder-5316465/|title=Indian rationalism, Charvaka to Narendra Dabholkar}}</ref> जैन भिक्षु या जैन साधु को '''श्रमण''' कहते हैं, जो पूर्णत: हिंसादि का प्रत्याख्यान करता और सर्वविरत कहलाता है। श्रमण को पाँच महाव्रतों - सर्वप्राणपात, सर्वमृष्षावाद, सर्वअदत्तादान, सर्वमैथुन और सर्वपरिग्रह विरमण को तन, मन तथा कार्य से पालन करना पड़ता है।
 
'श्रमण' शब्द [[प्राकृत]] के 'समण' शब्द से बना है, जिसके [[संस्कृत]] रूप तीन होते हैं - श्रमण, समन, शमन । श्रमण परम्परा का आधार इन्हीं तीन शब्दों पर है। 'श्रमण' शब्द 'श्रम;' धातु से बना है, इसका अर्थ है 'परिश्रम करना।' <ref>श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः -(दशवैकालिकवृति 1/3), उद्धृत, श्री इन्द्रचन्द्र जी शास्त्री, भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ, सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामण्डी, आगरा-1949 ई0, पृ0-1-5</ref>श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में 'श्रमणोऽश्रमणस' के रूप में हुआ है। अर्थात् यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है। सुख–दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है।
<ref>श्राम्यति तपसा खिद्यत् इति कृत्वा श्रमणः -(सूत्रकृतांग 1/16/1 शीलांक टीका पत्र 263) अनुवाद एवं व्याख्या महाराज श्री हेमचन्द्र जी, सम्पादक अमरमुनि, आत्मज्ञानपीठ, जैन धर्मशाला, मानसा मण्डी, पंजाब, 1981 ई0 </ref>
 
==ब्राह्मण और श्रमण==
[[ब्राह्मण]] वह है जो [[ब्रह्म]] को ही [[मोक्ष]] का आधार मानता हो और [[वेद]]वाक्य को ही ब्रह्म वाक्य मानता हो। ब्राह्मणों अनुसार ब्रह्म, और ब्रह्माण्ड को जानना आवश्यक है, तभी ब्रह्मलीन होने का मार्ग खुलता है। श्रमण वह जो श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता हो और जिसके लिए व्यक्ति के जीवन में ईश्वर की नहीं श्रम की आवश्यकता है। श्रमण परम्परा तथा सम्प्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्ध तथा जैन धर्मग्रन्थों में मिलता है तथा ब्राह्मण परम्परा का उल्लेख [[वेद]], [[उपनिषद]] और [[स्मृति]]यों में मिलता है।<ref>[https://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-history/brahmin-and-shraman-parampara-109090300043_1.html ब्राह्मण और श्रमण परम्परा]</ref>
 
ये दोनों परम्पराएँ भारतीय धर्म में गुरू पद को भोगते रहे हैं लेकिन एक ही देश में रहते हुए उसी का अन्न जल ग्रहण करते हुए भी दोनों की चिन्तन पद्धति अलग है। ब्राह्मण परम्परा का मूल आधार वैदिक साहित्य रहा है जिसकी धुरी ‘ब्रह्म' है। वेदों में जो कुछ भी आदेश एवं उपदेश उपलब्ध होते हैं अर्थात् [[यज्ञ]], [[पूजा]], [[स्तुति]], [[ईश्वर]]। उन्हीं के अनुसार जिस परम्परा ने अपनी जीवन पद्धति का निर्माण किया, वह ब्राह्मण परम्परा कहलाई तथा जिस परम्परा ने वेदों को प्रमाणित न मानकर आध्यात्मिक ज्ञान, आत्मविजय एवं आत्म-साक्षात्कार पर विशेष बल दिया वह श्रमण परम्परा कहलाई।
 
== इन्हें भी देखें ==