"नाट्य शास्त्र": अवतरणों में अंतर

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==भरतमुनि का नाट्यशास्त्र==
इस ग्रंथग्रन्थ में [[प्रत्यभिज्ञा दर्शन]] की छाप है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में स्वीकृत ३६ मूल तत्वों के प्रतीक स्वरूप नाट्यशास्त्र में '''३६ अध्याय''' हैं। पहले अध्याय में नाट्योत्पत्ति, दूसरे में मण्डपविधान देने के पश्चात् अगले तीन अध्यायों में नाट्यारम्भ से पूर्व की प्रक्रिया का विधान वर्णित है। छठे और सातवें अध्याय में [[रस|रसों]] और भावों का व्याख्यान है, जो भारतीय काव्यशास्त्र में व्याप्त रससिद्धान्त की आधारशिला है। आठवें और नवें अध्याय में उपांग एवं अंगों द्वारा प्रकल्पित [[अभिनय]] के स्वरूप की व्याख्या कर अगले चार अध्यायों में गति और करणों का उपन्यास किया है। अगले चार अध्यायों में [[छन्द]] और [[अलंकार|अलंकारों]] का स्वरूप तथा स्वरविधान बतालाया है। नाट्य के भेद तथा कलेवर का सांगोपांग विवरण १८वें और १९वें अध्याय में देकर २०वें वृत्ति विवेचन किया है। तत्पश्चात् २९वें अध्याय में विविध प्रकार के अभिनयों की विशेषताएँ दी गई हैं। २९ से ३४ अध्याय तक गीत वाद्य का विवरण देकर ३५वें अध्याय में भूमिविकल्प की व्याख्या की है। अंतिम अध्याय उपसंहारात्मक है।
 
यह ग्रंथ मुख्यत: दो पाठान्तरों में उपलब्ध है १. औत्तरीय पाठ और २. दाक्षिणात्य। [[पाण्डुलिपि]]यों में एक और ३७वाँ अध्याय भी क्वचित् उपलब्ध होता है जिसका समावेश [[निर्णय सागर प्रेस|निर्णयसागरी संस्करण]] में संपादक ने किया है। इसके अतिरिक्त मूल मात्र ग्रंथ का प्रकाशन [[चौखंबा संस्कृत सीरीज, वाराणसी]] से भी हुआ है जिसका पाठ निर्णयसागरी पाठ से भिन्न है। अभिनव भारती टीका सहित नाट्यशास्त्र का संस्करण गायकवाड सीरीज़ के अंतर्गत [[बड़ौदा]] से प्रकाशित है।
 
वस्तुत:वस्तुतः यह ग्रंथग्रन्थ नाट्यसंविधान तथा रससिद्धांतरससिद्धान्त की मौलिक संहिता है। इसकी मान्यता इतनी अधिक है कि इसके वाक्य 'भरतसूत्र' कहे जाते हैं। सदियों से इसे आर्ष सम्मान प्राप्त है। इस ग्रंथ में मूलत: १२,००० पद्य तथा कुछ गद्यांश भी था, इसी कारण इसे 'द्वादशसाहस्री संहिता' कहा जाता है। परंतुपरन्तु कालक्रमानुसार इसका संक्षिप्त संस्करण प्रचलित हो चला जिसका आयाम छह हजार पद्यों का रहा और यह संक्षिप्त संहिता 'षटसाहस्री' कहलाई। भरतमुनि उभय संहिता के प्रणेता माने जाते हैं और प्राचीन टीकाकारों द्वारा उनका 'द्वादश साहस्रीकार' तथा 'षट्साहस्रीकार' की उपाधि से परामर्श यत्र तत्र किया गया है। जिस तरह आज उपलब्ध [[चाणक्य नीति]] का आधार वृद्ध [[चाणक्य]] और [[स्मृति]]यों का आधार क्रमश:क्रमशः वृद्ध [[वसिष्ठ]], वृद्ध [[मनु]] आदि माना जाता है, उसी तरह वृद्धिवृद्ध भरत का भी उल्लेख मिलता है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि वसिष्ठ, मनु, चाणक्य, भरत आदि दो दो व्यक्ति हो गए, परंतुपरन्तु इस संदर्भसन्दर्भ में 'वृद्ध' का तात्पर्य परिपूर्ण संहिताकार से है।
 
; अध्याय
 
* अध्याय १ -- नाट्य
* अध्याय २ -- नाट्यमण्डप
* अध्याय ३ -- रङ्गपूजा
* अध्याय ४ -- ताण्डव
* अध्याय ५ -- पूर्वरङ्ग
* अध्याय ६ -- रस
* अध्याय ७ -- भाव
* अध्याय ८ -- उपाङ्ग
* अध्याय ९ -- अङ्ग
* अध्याय १० --
* अध्याय ११ --
* अध्याय १२ --
* अध्याय १३ -- गति
* अध्याय १४ --
* अध्याय १५ -- वाचिक, छन्दःशास्त्र
* अध्याय १६ -- छन्दस
* अध्याय १७ -- लक्षण
* अध्याय १८ -- भाषा
* अध्याय १९ -- नामन्, काकु
* अध्याय २० -- दशरूपक
* अध्याय २१ -- सन्धि
* अध्याय २२ -- वृत्ति
* अध्याय २३ -- नेपथ्य
* अध्याय २४ -- सामान्याभिनय
* अध्याय २५ -- वेश्या
* अध्याय २६ -- चित्राभिनय
* अध्याय २७ -- सिद्धि
* अध्याय २८ -- आतोद्य
* अध्याय २९ -- तात
* अध्याय ३० -- सुसिर
* अध्याय ३१ -- ताल
* अध्याय ३२ --
* अध्याय ३३ -- अवनद्ध
* अध्याय ३४ -- प्रकृति
* अध्याय ३५ -- भूमिका
* अध्याय ३६ --
 
==टीकाएँ==