"नमाज़": अवतरणों में अंतर

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इस आयत की रोशनी में नमाज़ का सब से अहम फ़लसफ़ा याद ख़ुदा है और याद ख़ुदा ही है जो मुश्किलात और सख़्त हालात में इंसान के दिल को आराम और इतमीनान अता करती है।
{{Quotation|'''أَلَا بِذِكْرِ اللَّهِ تَطْمَئِنُّ الْقُلُوبُ'''<br /> <br />
अनुवाद: ''आगाह हो जाओ कि यादयादे ख़ुदा ही से दिलदिलो को आराम और इतमीनान हासिल होता है।''<br />
[[क़ुरआन|--अल-क़ुरआन सूरत अलराद:२८.]]}}
रसूल ख़ुदा सिल्ली अल्लाहसल्लल्लाह अलैहि आला वसल्लम ने भी इसी बात की तरफ़ इशारा फ़रमाया है:
{{Quotation|नमाज़ और हज-ओ-तवाफ़ को इस लिए वाजिब क़रार दिया गया है ताकिताकी ज़िक्रअल्लाह ख़ुदाका (याद ख़ुदा)ज़िक्र मुहक़्क़िक़ हो सके}}
शहीद महिराब, इमाम मुत्तक़ीन हज़रत अली अलैहि अस्सलाम फ़लसफ़ा-ए-नमाज़ को इस तरह ब्यान फ़रमाते हैं:
{{Quotation|ख़ुदावंद आलमअल्लाह ने नमाज़ को इस लिए वाजिबफ़र्ज़ क़रार दिया है ताकि इंसान तकब्बुर से पाक-ओ-पाकीज़ा हो जाएनमाज़जाए नमाज़ के ज़रीये ख़ुदाअल्लाह से क़रीब हो जाओ। नमाज़ गुनाहों को इंसान से इस तरह गिरा देती है जैसे दरख़्त से सूखे पत्ते गिरते हैं, नमाज़ इंसान को (गुनाहों से) इस तरह आज़ाद कर देती हैजैसेहै जैसे जानवरों की गर्दन से रस्सी खोल कर उन्हें आज़ाद किया जाता है हज़रत अली रज़ी अल्लाह अन्नाअन्ह०}}
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामरज़ीअल्लाह अल्लाह अलैहाअन्हा मस्जिद नबवी में अपने तारीख़ी ख़ुतबा में इस्लामी दस्तो रात के फ़लसफ़ाअह्क़ाम को ब्यान फ़रमाते हुए नमाज़ के बारे में इशारा फ़रमाती पैंहैं:
{{Quotation|ख़ुदावंद आलमअल्लाह ने नमाज़ को वाजिब क़रार दिया ताकि इंसान को किबर-ओ-तकब्बुर और ख़ुद बीनी से पाक-ओ-पाकीज़ा कर दे}}
हिशाम बिन हुक्म ने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहि अस्सलाम से सवाल किया : नमाज़ का क्या फ़लसफ़ा है कि लोगों को कारोबार से रोक दिया जाय और उन के लिए ज़हमत का सबब बने? इमाम अलैहि अस्सलाम ने इस के जवाब में फ़रमाया:
{{Quotation|नमाज़ के बहुत से फ़लसफ़े हैं उन्हें में से एक ये भी है कि पहले लोग आज़ाद थे और ख़ुदा-ओ-रसूल की याद से ग़ाफ़िल थे और उन के दरमयान सिर्फ क़ुरआन था उम्मत मुस्लिमा भी गुज़शता उम्मतों की तरह थी क्योंकि उन्हों ने सिर्फ दीन को इख़तियार कर रखा था और किताब और अनबया-ए-को छोड़ रखा था और उन को क़तल तक कर देते थे। नतीजा में इन का दीन पुराना (बैरवा) हो गया और उन लोगों को जहां जाना चाहिए था चले गए। ख़ुदावंद आलमअल्लाह ने इरादा किया कि ये उम्मत दीन को फ़रामोश ना करे लिहाज़ा इस उम्मत मुस्लिमा के ऊपर नमाज़ को वाजिब क़रार दिया ताकि हर रोज़ पाँच बार आँहज़रत को याद करें और उन का इस्म गिरामी ज़बान पर যक़ब लाएंगे और इस नमाज़ के ज़रीया ख़ुदा को याद करें ताकि इस से ग़ाफ़िल ना हो सकें और इस ख़ुदा को तर्क ना कर दिया जाय}}
इमाम रज़ा अलैहि अस्सलाम फ़लसफ़ा-ए-नमाज़ के सिलसिला में यूं फ़रमाते हैं:
{{Quotation|नमाज़ के वाजिब होने का सबब, ख़ुदावंद आलमअल्लाह की ख़ुदाई और उसकी रबूबियत का इक़रार, शिर्क की नफ़ी और इंसान का ख़ुदावंद आलमअल्लाह की बारगाह में ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू के साथ खड़ा होना है। नमाज़ गुनाहों का एतराफ़ और गुज़शता गुनाहों से तलब अफ़व और तौबा है। सजदा, ख़ुदावंद आलमअल्लाह की ताज़ीम-ओ-तकरीम के लिए ख़ाक पर चेहरा रखना है}}
नमाज़ सबब बनती है कि इंसान हमेशा ख़ुदाअल्लाह की याद में रहे और उसे भूले नहीं, नाफ़रमानी और सरकशी ना करे। ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू और रग़बत-ओ-शौक़ के साथ अपने दुनियावी और उखरवी हिस्सा में इज़ाफ़ा का तलबगार हो। इस के इलावा इंसान नमाज़ के ज़रीया हमेशा और हरवक़त ख़ुदाअल्लाह की बारगाह में हाज़िर रहे और उसकी याद से सरशार रहे। नमाज़ गुनाहों से रोकती और मुख़्तलिफ़ बुराईयों से मना करती है सजदा का फ़लसफ़ा ग़रूर-ओ-तकब्बुर, ख़ुद ख़्वाही और सरकशी को ख़ुद से दूर करना और ख़ुदाएअल्लाह वहिदा ला शरीक की याद में रहना और गुनाहों से दूर रहना है
=== नमाज़ अक़ल और वजदान के आईना में ===
इस्लामी हक़ के इलावा कि जो मुस्लमान इस्लाम की वजह से एक दूसरे की गर्दन पर रखते हैं एक दूसरा हक़ भी है जिस को इंसानी हक़ खाकहा जाता है जो इंसानियत की बिना पर एक दूसरे की गर्दन पर है। उन्हें इंसानी हुक़ूक़ में से एक हक़, दूसरों की मुहब्बत और नेकियों और एहसान का शुक्रिया अदा करना है अगरचे मुस्लमान ना हूँ। दूसरों के एहसानात और नेकियां हमारे ऊपर शुक्र यए की ज़िम्मेदारी को आइद करती हैं और ये हक़ तमाम ज़बानों, ज़ातों, मिल्लतों और मुल्कों में यकसाँ और मुसावी है। लुतफ़ और नेकी जितनी ज़्यादा और नेकी करने वाला जितना अज़ीम-ओ-बुज़ुर्ग हो शुक्र भी इतना ही ज़्यादा और बेहतर होना चाहिए।
क्या ख़ुदाअल्लाह से ज़्यादा कोई और हमारे ऊपर हक़ रखता है? नहीं। इस लिए कि इस की नेअमतें हमारे ओपरबेऊपर बे शुमार हैं और ख़ुद इस का वजूद भी अज़ीम और फ़य्याज़ है। ख़ुदावंद आलमअल्लाह ने हम को एक ज़र्रे से तख़लीक़ किया और जो चीज़ भी हमारी ज़रूरीयात-ए-ज़िंदगी में से थी जैसे, नूर-ओ-रोशनी, हरारत, मकान, हुआ, पानी, आज़ा-ओ-जवारेह, गुरावज़-ओ-कवाय नफ़सानी, वसीअ-ओ-अरीज़ कायनात, पौदे-ओ-नबातात, हैवानात, अक़ल-ओ-होश और आतफ़ा-ओ-मुहब्बत वग़ैरा को हमारे लिए फ़राहम किया।
हमारी माअनवी तर्बीयत के लिए अनबया-ए-अलैहिम अस्सलाम को भेजा, नेक बुख़ती और सआदत के लिए आईन वज़ा किए, हलाल-ओ-हराम में फ़र्क़ वाज़िह किया। हमारी माद्दी ज़िंदगी और रुहानी हयात को हर तरह से दुनियावी और उखरवी सआदत हासिल करने और कमाल की मंज़िल तक पहुंचने के वसाइल फ़राहम किए। ख़ुदाअल्लाह से ज़्यादा किस ने हमारे साथ नेकी और एहसान किया है कि इस से ज़्यादा इस हक़ शुक्र की अदायगी का लायक़ और सज़ावार हो। इंसानी वज़ीफ़ा और हमारी अक़ल-ओ-वजदान हमारे ऊपर लाज़िम क़रार देती हैं कि हम उस की इन नेअमतों का शुक्र अदा करें और उन नेकियों के शुक्राना में उसकी इबादत करें और नमाज़ अदा करें। चूँकि वो हमारा ख़ालिक़ है, लिहाज़ा हम भी सिर्फ उसी की इबादत करें और सिर्फ इसी के बंदे रहें और मशरिक़-ओ-मग़रिब के ग़ुलाम ना बनें।
नमाज़ ख़ुदाअल्लाह की शुक्रगुज़ारी है और साहिब वजदान इंसान नमाज़ के वाजिब होने को दृक् करता है। जब एक कुत्ते को एक हड्डी के बदले में जो उसको दी जाती है हक़शनासी करता है और दुम हिलाता है और अगर चोर या अजनबी आदमी घर में दाख़िल होता है तो इस पर हमला करता है तो अगर इंसान परवरदिगार की इन तमाम नेअमतों से लापरवाह और बे तवज्जा हो और शुक्र गुज़ारी के जज़बा से जो कि नमाज़ की सूरत में जलवागर होता है बेबहरा हो तो क्या ऐसा इंसान क़दरदानी और हक़शनासी में कुत्ते से पस्त और कमतर नहीं है।
 
== अन्य नमाजें==
प्रति दिन की पाँचों समय की नमाज़ों के सिवा कुछ अन्य नमाज़ें हैं, जो समूहबद्ध हैं। पहली नमाज़ जुम्मअ (शुक्रवार) की है, जो सूर्य के ढलने के अनंतर नमाज़ जुह्र के स्थान पर पढ़ी जाती है। इसमें इमाम नमाज़ पढ़ाने के पहले एक भाषण देता है, जिसे खुतबा कहते हैं। इसमें अल्लाह की प्रशंसा के सिवा मुसलमानों को नेकी का उपदेश दिया जाता है। दूसरी नमाज ईदुलफित्र के दिन पढ़ी जाती है। यह मुसलमानों का वह त्योहार है, जिसे उर्दू में ईद कहते हैं और रमजान के पूरे महीने रोजे (दिन भर का उपवास) रखने के अनंतर जिस दिन नया चंद्रमा (शुक्ल द्वितीया का) निकलता है उसके दूसरे दिन मानते हैं। तीसरी नमाज़ ईद अल् अजा के अवसर पर पढ़ी जाती है। इस ईद को कुर्बानी की ईद कहते हैं। इन दिनों के अवसरों पर निश्चित नमाज़ों का समय सूर्योदय के अनंतर लगभग बारह बजे दिन तक रहता है। ये नमाज़ें सामान्य नमाज़ों की तरह पढ़ी जाती हैं। विभिन्नता केवल इतनी रहती है कि इनमें पहली रकअत में तीन बार और दूसरी रकअत में पुन: तीन बार अधिक कानों तक हाथ उठाना पड़ता है। नमाज़ के अनंतर इमाम खुतबा देता है, जिसमें नेकी व भलाई करने के उपदेश रहते हैं।
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