"पतञ्जलि योगसूत्र": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति 117:
अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा उनका निरोध ॥१२॥<br>
 
उनमें (शुन्य में) स्थित रहने का यत्न, अभ्यास ॥१३॥<br>
 
वह अभ्यास दीर्घ काल तक निरन्तर सत्कार पुर्वक सेवन किए जाने पर दृढ़ भूमिका वाला होता है ॥१४॥<br>
पंक्ति 137:
तीव्र संवेग के भी मृदु मध्य तथा अधिमात्र, यह तीन भेद होने से, अधिमात्र संवेग वाले को समाधि लाभ में विशेषता है ॥२२॥<br>
 
या सब (कर्म नहीं, केवल कर्म फल)ईश्वर पर छोड़ देने से ॥२३॥(ईश्वर प्रणिधान)<br>
 
अविद्या अस्मिता राग द्वेष तथा अभिनिवेष यह पाँच क्लेश कर्म, शुभ तथा अशुभ, फल, संस्कार आशय से परामर्श में न आने वाला, ऐसा परम पुरुष,(अपराध (जड़)और परा चेतन; दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण-पर, अनादि-अनंतस्वरुपी, अपरम्पार-शक्तियुक्त, देश-कालातीत,शब्दातीत,नाम-रुपातीत, अद्वितीय; मन, बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति मण्डल एक महान् यंत्र की नाईं परिचालित होता रहता है; जो न व्यक्ती है, और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है,जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, संतमत में उसे ही परम अध्यात्म-पद वा परम अध्यात्म- स्वरुपी परम प्रभु सर्वेश्वर ( कुल्ल मालिक) मानते हैं) यही-ईश्वर है ॥२४॥<br>
 
उस (ईश्वर में) अतिशय की धारणा से रहित सर्वज्ञता का बीज है ॥२५॥<br>