"रूसो": अवतरणों में अंतर
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प्रत्येक विचारक का दर्शन उसके जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। कितु रूसो को समझने के लिए उसकी चारित्रिरक विशेषताएँ तथा दुबर्लताएँ विशेष रूप से ज्ञातव्य हैं। अपने व्यक्ति्तगत दोषों के लिए समाज को उत्तरदायी ठहराकर रूसो ने न केवल अपने को निरपराध बल्कि मनुष्यमात्र को निसर्गत: नेक और विशुद्धात्मा बताया। पेरिस की भौतिकवादी सभ्यता के कृत्रिम वातावरण को अपने स्वभाव के प्रतिकूल पाकर उसने प्राकृतिक अवस्था के सरल जीवन की कल्पना की। शिक्षित और सभ्य समाज के साथ अपने व्यक्तित्व का सामंजस्य वह कभी नहीं स्थापित कर पाया। उसके जीवन के अंतिम वर्ष दैहिक संताप, मानसिक विषाद, काल्पनिक भय, विक्षोभ तथा उन्माद के आवेग से पूर्ण थे। बाल्यावस्था से ही वह चरित्रहीन था। कितु वासनाओं का दास होते हुए भी उसमें उदात्त भावनाओं का अभाव नहीं था। उसकी कृतियाँ उसकी सहज अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हैं। इसीलिए वे इतनी मर्मस्पर्शनी तथा प्रभावोत्पादक हैं।
आधुनिक सभ्यता के दोषों का वर्णन करते हुए रूसो अपने समय के अन्य विचारकों की भाँति प्राकृतिक और रूढि़गत का अंतर प्रस्तुत करता है। किन्तु प्राकृतिक अवस्था की कल्पना उसके राज्य संबंधी विचारों की पुष्टि के लिए अनावश्यक सी है। रूसो के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में जीवन सरल था। बुद्धि तथा भाषा का विकास नहीं हुआ था। मनुष्य अपनी सहज प्रवृत्तियों के अनुसार आचरण करता था। वह नैतिकता अनैतिकता से परे था। उसे न हम सुखी कह सकते हैं, न दु:खी। यह अवस्था रूसो का आदर्श नहीं है। वह बुद्धि तथा भावना का सामंजस्य चाहता है जो प्राकृतिक अवस्था के विकास की दूसरी मंजिल है। यह प्रारम्भिक जीवन की सरल निष्क्रियता तथा वैज्ञानिक सीयता की विषाक्त जटिलता के बीच की स्थिति है। भाषा का विकास, सामाजिक सहयोग, शांति और सौहार्द्र, इसकी विशेषताएँ हैं। धीरे-धीरे बुद्दि भावनाओं को पराभूत कर लेती है और श्रद्धा, विश्वास प्रेम तथा दया का स्थान अविश्वास, वैमनस्य, स्वार्थ ले लेते हैं। व्यक्तिगत संपत्ति का आविर्भाव होता है और मनुष्य दासता की शृंखला में जकड़ जाता है। आर्थिक शोषण तथा सामाजिक अत्याचार के कारण उसका व्यक्ति नष्ट हो जाता है। इस वर्णन में फ्रांस की राज्यक्रांति के पूर्व की अवस्था प्रतिबिम्बित है। इसी स्थिति से
रूसो की प्रारंम्भिक कृतियों तथा सामाजिक प्रसंविदा के कुछ अंशों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि लेखक समाज व्यवस्था का विरोधी है और व्यक्ति की निरपेक्ष स्वतंत्रता में विश्वास करता है। कितु रूसो स्वयं आलोचकों द्वारा वर्णित '''समानता की उत्पत्ति''' के घोर व्यक्तिवाद और "सामाजिक प्रसंविदा' के घोर समष्टिवाद के परस्पर विरोध को नहीं मानता। अपनी प्रारंभिक कृतियों में उसका उदश्य प्रचलित मान्यताओं का खंडन मात्र था। कितु सामाजिक प्रसंविदा में वह अपना स्वतंत्र दर्शन प्रस्तुत करता है। उसके अनुसार मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में ही उसके मानवोचित गुणों का विकास हो सकता है। कितु वर्तमान समाज उसे अनावश्यक तथा अनिष्टकारी बंधनों से जकड़ देता है। प्रसंविदा का उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना है जो अपनी संपूर्ण सामूहिक शक्ति के द्वारा प्रत्येक सदस्य की स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा कर सके और जिसमें प्रत्येक व्यक्ति समष्टि में सम्मिलित होकर भी अपनी ही आज्ञा का पालन करे और पूर्ववत् स्वतंत्र बना रहे। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति अपनी संपूर्ण शक्तियों को सामान्य संकल्प के सर्वोच्च निर्देशन में समाज को सौंप देता है और फिर समष्टि के अविभाज्य अंश के रूप में उन सभी अधिकारों को प्राप्त कर लेता है। प्रसंविदा के परिणामस्वरूप जिस राज्य की उत्पत्ति होती है वह एक नैतिक अवयवी है जिसका अपना स्वतंत्र संकल्प होता है। यह सामान्य संकल्प जो सदैव समष्टि और व्यष्टि दोनों की रक्षा और कल्याण में प्रवृत्त रहता है, समाज में विधान का स्रोत तथा न्याय का मानदंड है। स्पष्ट है कि ऐसा समाज प्रसंविदा का परिणाम कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि प्रसंविदा की पूर्ण मान्यता व्यक्ति की नैतिक तथा तार्किक प्राथमिकता है, न कि समाज की।
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