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रोग और रोगी के बल, स्वरूप, अवस्था, स्वास्थ्य, सत्व, प्रकृति आदि के अनुसार उपयुकत औषध की उचित मात्रा, अनुकूल कल्पना (बनाने की रीति) आदि का विचार कर प्रयुक्त करना। इसके भी मुख्यत: तीन प्रकार हैं : अंतःपरिमार्जन, बहिःपरिमार्जन और शस्त्रप्रणिधान।
 
[[चित्र:Ayurvedic treatment procedures.svg|right|thumb|400px|आयुर्वेदिक चिकित्सा]]
;(१) अन्तःपरिमार्जन (औषधियों का आभ्यन्तर प्रयोग)
 
हृष्ट-पुष्ट रोगी के लिए '''अपतर्पण चिकित्सा''' की जाती है जिससे उसके शरीर में लघुता आये। दुबले-पतले रोगी के ले '''संतर्पण चिकित्सा''' की जाती है जिससे उसके शरीर् में गुरुता आए। इन दोनों प्रकार की चिकित्साओं के भी पुनः मुख्यतः दो प्रकार हैं-
 
[[चित्र:Ayurvedic treatment procedures.svg|right|thumb|400px|आयुर्वेदिक चिकित्सा]]
:'''(क) लंघन चिकित्सा''' - शरीर में लघुता लाने के लिए। यह भी दो प्रकार की होती है -
::* (अ) '''संशोधन''' – जिस चिकित्सा में प्रकुपित दोषों और मलों को शरीर के स्वाभाविक विसर्जन अंगों द्वारा शरीर से बाहर निकाला जाता है। इस पांच प्रकार की चिकित्सा, वमन, विरेचन, अनुवासन बस्ति, निरूह बस्ति तथा नस्य, को [[पंचकर्म]] कहा जाता है जो आयुर्वेद की अत्यन्त ही प्रसिद्ध तथा प्रचलित चिकित्सा है।
 
::*(आ) '''शमन''' – दोषों को विसर्जित किये बिना ही विभिन्न प्रकार से साम्यावस्था में लाया जाता है जैसे पिपासा-निग्रह (प्यासे रहना), आतप और मारूत (धूप और ताजी हवा का सेवन), पाचन और दीपन (पाचन शक्ति की वृद्धि तथा भोजन का परिपाक करने वाली औषधियों का सेवन), उपवास (भूखे रहना) तथा शारीरिक व्यायाम (शारीरिक श्रम तथा योगासन)।
 
:'''(ख) बृंहण चिकित्सा''' – शरीर की पुष्टि के लिए।