"संन्यासी विद्रोह": अवतरणों में अंतर

संशोधन
टैग: यथादृश्य संपादिका मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
संशोधन
टैग: यथादृश्य संपादिका मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
पंक्ति 2:
अट्ठारहवीँ शती के अन्तिम वर्षों 1770-1820ई में [[अंग्रेजी शासन]] के विरुद्ध तत्कालीन [[भारत]] के कुछ भागों में सन्यासियों (केना सरकार , दिर्जीनारायण) उग्र आन्दोलन किये थे जिसे [[इतिहास]] में '''सन्यासी विद्रोह''' कहा जाता है। यह आन्दोलन अधिकांशतः उस समय [[ब्रिटिश भारत]] के [(बंगाल-bihar)] प्रान्त में हुआ था।
 
[[बांग्ला भाषा]] के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार [[बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय]] का सन १८८२ में रचित उपन्यास [[आनन्द मठ]] इसी विद्रोह की घटना<ref>निहालचन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित ''बंकिम समग्र'' [[1989]] हिन्दी प्रचारक संस्थान [[वाराणसी]] पृष्ठ ९९१ </ref> पर आधारित है। भूपेन्द्र नाथ दत्त(स्वामी विवेकानन्द के अनुज) द्वारा लिखी पुस्तक भारतीय द्वितीय स्वाधीनता संग्राम भी इस विद्रोह की झलक प्रस्तुत करता है। देशभक्ति से परिपूर्ण कालजयी रचना [[वन्दे मातरम्]] इसी उपन्यास आनंद मठ की उपज है जो आगे चलकर [[भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम]] का मूलमन्त्र बनी।इस विद्रोह की शुरूआत "[[कूचबिहार]] के राजा के उतराधिकार को लेकर हुआ , जो जन समर्थन पाकर व्यापक होती गयी।दशनाम परंपरा के गिरी संन्यासी हिम्मत बहादुर गिरी, चंदन गिरी संघर्ष के संवाहक बने तथा [[काशी राज|काशीराज]] [[बेतिया राज|बेतियाराज]] [[हुस्सेपुर राज|हुस्सेपुरराज]] से [[कूच विहार]] तथा [[लाल गोला स्टेट]] तक के सभी छोटे बडे रजवाडों जमींदारों को साथ जोड लिया।कालांतर में गया से [[भवानी पाठक]] जैसे क्रान्ति के अग्रदूत भी जुडते चले गये । इस विद्रोह की व्यापकता और जनसमर्थन का अन्दाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि लागातार ४० सालों तक जारी रहा।हिम्मत बहादुर गिरी की अध्यक्षता मे बलिया के उजियारपुर में  काशी राजा बलवंत नारायण सिंह, बेतिया के राजा युगल किशोर सिंह मिश्रा हुस्सेपुर राज (हथुवा स्टेट )के राजा फतेह बहादुर शाही आदि के उपस्थिति मे एक सभा होती है , जिसमे ये निर्णय होता है कि अंग्रेज बाकि सभी पूर्ववर्ती शासकों से क्रूर हैं अतः विद्रोह आवश्यक है।है।जब नागा सन्यासी , रामानंदी सन्यासी, नाथपंथी संन्यासी,फकीर मदार सन्यासी, काशीराज, हुस्सेपुरराज और बेतिया राज की सम्मिलित सेना  बक्सर मे युद्ध हार जाती है तब फतेह बहादुर शाही थाबे की दूर्गा माँ की मुर्ति पीठ पर बाँध कर - "बँदऊँ मात भवानी" का उद्घोष करते हुए गृह त्याक कर युद्ध मे कूद जाते हैं तथा गुरिल्ला युद्ध करते हुए काशी से बंगाल तक अंग्रेजों को ४० वर्षों तक टक्कर देते रहते हैं, गया विष्णुपद मंदिर के प्रांगण में अपने मृत्यु से पूर्व अपने सहयोगियों से इन्होंने ही भारत भूमि को भारत माता के रूप में स्थापित कर के जन जागरण का आह्वान किया , जिसके फलस्वरूप १८५७ क्रान्ति को मगध भोजपुर बुन्देलखंड बंगाल मे भीषण जन समर्थन के मिला ।
 
== सन्दर्भ ==