"कर्म योग": अवतरणों में अंतर

कर्म योग विषय और गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग दोनों भिन्न विषय होने के कारण विलय नहीं हो पाया।
छो मैंने पृष्ठ में स्वामी विवेकानंद के कर्मयोग संबंधी मत को भी जोड़ा है।
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गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर, परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ और मिथ्या आचरण करनेवाला कहा गया है। कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है। उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएँगे। इससे लोकस्थिति के लिए किए जानेवाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनुष्य को भी, जो प्रकृति के बंधन से मुक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए। अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फलप्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही, गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।
 
== स्वामी विवेकानंद का कर्म योग ==
स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध किताब [https://hindipath.com/swami-vivekananda-karma-yoga-hindi-free-download-pdf/ कर्म योग] उनके द्वारा अमेरिका में दिसम्बर 1895 से जनवरी 1896 के बीच दिए गए व्याखानों का संकलन है।<ref>{{Cite web|url=https://hindipath.com/swami-vivekananda-karma-yoga-hindi-free-download-pdf/|title=कर्मयोग|last=विवेकानंद|first=स्वामी|date=|website=|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref> स्वामी जी के अनुसार कर्मयोग वस्तुतः निःस्वार्थपरता और सत्कर्म द्वारा मुक्ति लाभ करने की एक विशिष्ट प्रणाली है।<ref>{{Cite web|url=https://hindipath.com/swami-vivekananda-karma-yoga-ka-aadarsh-hindi/|title=कर्मयोग का आदर्श|last=विवेकानंद|first=स्वामी|date=|website=|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref> विवेकानन्द कहते हैं कि बिना किसी निजी स्वार्थ के लोकोपकार के लिए अपना कर्तव्य सर्वश्रेष्ठ तरीक़े से करना ही कर्म योग है।<ref>{{Cite web|url=https://hindipath.com/swami-vivekananda-apne-karyakshetra-me-sab-bade-hain/|title=अपने-अपने कार्यक्षेत्र में सब बड़े हैं|last=विवेकानन्द|first=स्वामी|date=|website=|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref> कर्म योग के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं, "आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शान्ति एवं निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म का, तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शान्ति एवं निस्तब्धता का अनुभव करते हैं। उन्होंने संयम का रहस्य जान लिया है–अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके हैं। किसी बड़े शहर की भरी हुई सड़कों के बीच से जाने पर भी उनका मन उसी प्रकार शान्त रहता है, मानो वे किसी नि:शब्द गुफा में हों, और फिर भी उनका मन सारे समय कर्म में तीव्र रूप से लगा रहता है। यही कर्मयोग का आदर्श है, और यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया है, तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया।"<ref>{{Cite web|url=https://hindipath.com/swami-vivekananda-karma-ka-charitra-par-prabhaw/|title=कर्म का चरित्र पर प्रभाव|last=विवेकानंद|first=स्वामी|date=|website=|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref> गीता में वर्णित अनासक्ति का सिद्धान्त कर्मयोग में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसे समझाते हुए स्वामी जी कहते हैं, "अनासक्त होओ; कार्य होते रहने दो–मस्तिष्क के केन्द्र अपना अपना कार्य करते रहें–निरन्तर कार्य करते रहें, परन्तु एक लहर को भी अपने मन पर प्रभाव मत डालने दो। संसार में इस प्रकार कर्म करो, मानो तुम एक विदेशी पथिक हो, दो दिन के लिए यहाँ आये हो। कर्म तो निरन्तर करते रहो, परन्तु अपने को बन्धन में मत डालो; बन्धन बड़ा भयानक है। संसार हमारी निवासभूमि नहीं है; यह तो उन सोपानों में से एक है, जिनमें से होकर हम जा रहे हैं।"<ref name=":0">{{Cite web|url=https://hindipath.com/swami-vivekananda-karma-rahasya-hindi/|title=कर्म का रहस्य|last=विवेकानन्द|first=स्वामी|date=|website=|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref>
 
कर्म योग का वास्तविक तात्पर्य समझाते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं, "अब तुमने देखा, कर्मयोग का अर्थ क्या है। उसका अर्थ है मौत के मुंह में भी बिना तर्क-वितर्क के सब की सहायता करना। भले ही तुम लाखों बार ठगे जाओ, पर मुँह से एक बात तक न निकालो; और तुम जो कुछ भले कार्य कर रहे हो, उनके सम्बन्ध में सोचो तक नहीं। निर्धन के प्रति किये गये उपकार पर गर्व मत करो और न उससे कृतज्ञता की ही आशा रखो; बल्कि उलटे तुम्हीं उसके कृतज्ञ होओ–यह सोचकर कि उसने तुम्हें दान देने का एक अवसर दिया है।"<ref name=":0" />
 
== इन्हें भी देखें ==