"ज़मींदारी प्रथा": अवतरणों में अंतर

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== परिचय एवं इतिहास ==
भारत मे सबसे ज्यादा जमींदारियाँ अगर किसी की रही है तो वो लोधी क्षत्रिय थे :भारत की प्राचीन विचारधारा के अनुसार भूमि सार्वजनिक संपत्ति थी, इसलिये यह व्यक्ति की संपत्ति नहीं हो सकती थी। भूमि भी वायु, जल एवं प्रकाश की तरह प्रकृतिदत्त उपहार मानी जाती थी। महर्षि [[जैमिनि]] के मतानुसार "राजा भूमि का समर्पण नहीं कर सकता था क्योंकि यह उसकी संपत्ति नहीं वरन् मानव समाज की सम्मिलित संपत्ति है। इसलिये इसपर सबका समान रूप से अधिकार है"। [[मनु]] का भी स्पष्ट कथन है कि "ऋषियों के मतानुसार भूमिस्वामित्व का प्रथम अधिकार उसे है जिसने जंगल काटकर उसे साफ किया था जोता" ([[मनुस्मृति]], 8.237-239)। अतएव प्राचीन भारत के काफी बड़े भाग में भूमि पर ग्राम के प्रधान का निर्वाचन ग्रामसमुदाय करता था तथा उसकी नियुक्ति राज्य की सम्मति से होती थी। राज्य उसे भूमिकर न देने पर हटा सकता था, यद्यपि यह पद वंशानुगत था तथा इसकी प्राप्ति के लिये जनमत तथा राज्यस्वीकृति आवश्यक थी। अतएव वर्तमान समय के जमींदारों से, जो निर्वाचित नहीं होते वे भिन्न थे।
 
प्राचीन भारत में भूमि का संपत्ति के रूप में क्रयविक्रय संभव नहीं था। इस तथ्य की पुष्टि पाश्चात्य विद्वान [[बेडेन पावेल]] तथा सर [[जार्ज कैंपबेल]] ने भी की है। कैंपबेल का कथन है कि भूमि जोतने का अधिकार एक अधिकार मात्र ही था और हिंदू व्यवस्था के अनुसार भूमि नहीं माना गया था। आधुनिक अनुसंधानों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि प्राचीन भारत में सामंत, उपरिक, भोगिक, प्रतिहर तथा दंडनायक विद्यमान थे। ये लोग न्यूनाधिक सामंतप्रथा के अनुकूल थे। किंतु हमें इनके अधिकारों तथा कर्तव्यों का पता निश्चय रूप से नहीं हो सका है, सिवाय इसके कि ये लोग अपने स्वामियों को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक भेजते थे। इन अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में भूमि प्रदान की जाती थी। भूमिव्यस्था के संबंध में [[याज्ञवल्क्य]] के मतानुसार चार वर्ग, महीपति, क्षेत्रस्वामी, कृषक और शिकमी थे (याज्ञवल्क्य 2.158)। आचार्य [[बृहस्पति]] ने क्षेत्रस्वामी के स्थान में केवल स्वामी शब्द का ही प्रयोग किया है परंतु इसका स्पष्टीकरण कर दिया है कि स्वामी, राजा और खेतिहर के मध्य का वर्ग था। उपर्युक्त वर्णन केवल भूधृति के वर्गीकरण को इंगित करता है, न कि कृषक को एक आंग्ल दास के स्तर पर पहुँचा देता है।