"रविदास": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति 12:
स जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से भगा दिया। रविदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग इमारत बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
 
== स्वभाव ==
devansh gupta ROCKSTAR
 
* उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, ''गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु । गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।'' कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।
पंक्ति 59:
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा’॥
 
== दोहे ==
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जीवन चारि दिवस का मेला रे ।
बांभन झूठा , वेद भी झूठा , झूठा ब्रह्म अकेला रे ।
मंदिर भीतर मूरति बैठी , पूजति बाहर चेला रे ।
लड्डू भोग चढावति जनता , मूरति के ढिंग केला रे ।
पत्थर मूरति कछु न खाती , खाते बांभन चेला रे ।
जनता लूटति बांभन सारे , प्रभु जी देति न धेला रे ।
पुन्य पाप या पुनर्जन्म का , बांभन दीन्हा खेला रे ।
स्वर्ग नरक बैकुंठ पधारो , गुरु शिष्य या चेला रे ।
जितना दान देव गे जैसा , वैसा निकरै तेला रे ।
बांभन जाति सभी बहकावे , जन्ह तंह मचै बबेला रे ।
छोड़ि के बांभन आ संग मेरे , कह विद्रोहि अकेला रे ।
चित्तौड़ के कुम्भ श्याम के मंदिर में रविदास जी ने यह गीत पद गाया था , जिसका विस्तार से अर्थ है कि ब्राह्मणी लोग भारतीय बहुजनों को पाखण्ड के नाम पर खूब लूटते थे । उन्होंने लोगों को लूटने के लिए तरह तरह के पाखण्ड फैलाये हुए थे । संत शिरोमणि रविदास जी ने उनके पाखंडों का खंडन अपने इस गीत से किया था । उन्होंने कहा था कि मनुष्य का जीवन एक बुलबुले की तरह है । ब्राह्मणी लोग झूठे हैं , उनके वेद भी झूठे हैं और उनका ब्रह्मा भी झूठा है , जो मनुष्य की आत्मा को अजर अमर बताकर ठगता है । ब्राह्मण एक मूर्ति को अंदर बंद करके पटक देता है और उस मूर्ति की पूजा के नाम पर बाहर बैठकर लोगों को ठगता है । जनता तरह तरह की कीमती वस्तु लाकर उस भगवान के लिए भेंट करती है , लेकिन पुजारी उन वस्तुओं में से एक केला मूर्ति के पास रख देता है और शेष सभी कीमती सामान को अपने पास रख लेता है । पत्थर की मूर्ति जब उस केले तक नही खा पाती है , तो अन्य वस्तुओं को कैसे खा पाएगी । उस पत्थर की मूर्ति के नाम पर सभी कीमती सामान को ब्राह्मण चट कर जाते हैं । इस प्रकार ब्राह्मण भारत की सारी जनता को लूटते हैं । लेकिन जनता को उसका कोई भी प्रतिफल नही मिलता है । ब्राह्मण अपने इस खेल को मजबूती देने के लिए पुण्य , पाप , पुनर्जन्म का पाखण्ड रचता है । दान के आधार पर स्वर्ग , नरक , बैकुण्ड की कल्पना उनके द्वारा की जाती है । इस प्रकार ब्राह्मण लोग सभी को मूर्ख बनाते हैं । जहां पर भी एक ब्राह्मण निवास करता है , वह क्षेत्र उसी प्रकार गंदा हो जाता है , जिस प्रकार एक मछली की उपस्थिति से समुद्र गंदा हो जाता है । इसलिए ब्राह्मण के पास निवास नही करें । क्योंकि जिस गांव , कस्बे या शहर में ब्राह्मण निवास करता है , उस गांव , कस्बे या शहर का निवास जाति और धर्मवाद के आधार पर होता है । रविदास जी ने कहा था कि ब्राह्मण को अपने पास बसने से वर्जित करें और मेरे सम्यक मार्ग का अनुसरण करें । तभी इस देश की उन्नति शिरोधार्य होगी । कहाँ ब्राह्मणवादी यह शिक्षा कि वेद स्वर्ग का द्वार खोलते हैं और कहाँ रैदास जी की यह चेतावनी कि जो वेदों पर चलेगा , वह नरक में जायेगा ।
 
* जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
== सतगुरु रविदास जी के वंशज ==
 
* [[बाबा संगत सिंह रविदासीया ]]
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
*[[बाबा मदन सिंह रविदासीया ]]
* मन चंगा तो कठौती में गंगा ||
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*बाभन कहत वेद के जाये, पढ़त लिखत कछु समुझ न आवत ।
*मन ही पूजा मन ही धूप ,मन ही सेऊँ सहज सरूप।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==