"हजारीप्रसाद द्विवेदी": अवतरणों में अंतर

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प्रतिद्वन्द्वियों के विरोध<ref>हजारीप्रसाद द्विवेदी (विनिबन्ध), पूर्ववत्, पृ०-16-17.</ref> के चलते मई 1960 में<ref>दूसरी परम्परा की खोज, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-1994, पृष्ठ-33.</ref> द्विवेदीजी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिये गये। जुलाई 1960 से [[पंजाब विश्वविद्यालय]], चंडीगढ़ में हिंदी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे। अक्टूबर 1967 में पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष होकर लौटे। मार्च 1968 में विश्वविद्यालय के रेक्टर पद पर उनकी नियुक्ति हुई और 25 फरवरी 1970 को इस पद से मुक्त हुए। कुछ समय के लिए 'हिन्दी का ऐतिहासिक व्याकरण' योजना के निदेशक भी बने। कालान्तर में उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष तथा 1972 से आजीवन [[उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ]] के उपाध्यक्ष पद पर रहे। 1973 में 'आलोक पर्व' निबन्ध संग्रह के लिए उन्हें '[[साहित्य अकादमी पुरस्कार]]' से सम्मानित किया गया। 4 फरवरी 1979 को पक्षाघात के शिकार हुए और 19 मई 1979 को ब्रेन ट्यूमर से दिल्ली में उनका निधन हो गया।<ref>व्योमकेश दरवेश, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2012, पृष्ठ-333.</ref>
 
द्विवेदी जी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और उनका स्वभाव बड़ा सरल और उदार था। वे [[हिंदी]], [[अंग्रेज़ी]], [[संस्कृत]] और [[बाङ्ला]] भाषाओं के विद्वान थे। भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान था। [[लखनऊ विश्वविद्यालय]] ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि देकर उनका विशेष सम्मान किया था। हिन्दी साहित्य के लिए उनके अवदान अविस्मरणीय है।
 
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