"रुक्मिणी": अवतरणों में अंतर

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माना जाता है कि 1480 में रुक्मिणी देवी के सेवक संदेशवाहक इस दुनिया में वाडिरजतीर्थ (1480-1600) के रूप में प्रकट हुए, जो माधवाचार्य परंपरा के सबसे बड़े संत थे। उन्होंने 1940 में छपे 1240 श्लोकों में रुक्मिणी और कृष्ण की महिमा का वर्णन करते हुए एक प्रसिद्ध रचना की।
 
जिज्ञासा:
 
भगवान् श्रीकृष्ण जी ने रुक्मणी जी से राक्षस विधि से विवाह किया।
क्या यह उचित है?
रुक्मिणी जी पत्र में कहती हैं
श्वाेभाविनि त्वमजिताेद्वहने विदर्भान्
गुप्तः समेत्य पृतनापतिभिः परीतः।
निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलंप्रसह्य
मां राक्षसेन विधिनाेद्वह वीर्यशुल्काम् ।।
श्रीमद् भागवत 10/52/41
.......राक्षस विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये।
 
आठ प्रकार के विवाह
1. ब्राह्म
2. दैव
3. आर्ष
4. प्राजापत्य
5. आसुर
6. गन्धर्व
7. राक्षस
8. पैशाच
ये उत्तरोत्तर अधम माने गये हैं।
 
समाधान :
।।निंदनीय है राक्षस विवाह।।
 
मनुस्मृति के अनुसार जब कोई पुरुष किसी विशेष स्त्री को अपनी पत्नी बनाना चाहता है और लड़की के परिवारवाले, समाज या स्वयं वह लड़की इस संबंध के लिए सहमत नहीं है तो लड़की का अपहरण कर उसे अपनी दुलहन बनाना राक्षस विवाह कहलाता है।
 
इसमें विवाह की जो दो आवश्यक तथ्यात्मक शर्ते हैं उनमें से केवल एक ही पूरी हो रही है ।
 
अर्थात रुकमणी जी इस विवाह के विरोध में नहीं थी ।
 
जब कभी भी राक्षस विधि से कोई भी पुरुष किसी स्त्री का अपहरण करके ले कर जा रहा होता है ।
 
तो उस समय वह स्त्री चिल्ला चिल्ला कर के अपने समाज को अपने परिजनों को सहायता के लिए पुकारती है जबकि यहां इस परिस्थिति में यह सब कुछ नहीं हुआ रुक्मणी जी ने स्वयं श्री कृष्ण जी को बुलाया और वह स्वयं उनका हाथ पकड़कर रथ पर विराजमान भी हुई थी अतः यह स्वयं सिद्ध स्वयंवर है।
 
वह इस विवाह के पक्ष में थी।इसमें विवाह की जो दो आवश्यक अध्यात्मवादी शर्ते हैं उनमें से केवल एक ही पूरी हो रही है।
 
रुकमणी जी इस विवाह के पक्ष में थी।
 
कोई इस विवाह के पक्ष में नहीं था तो वह केवल रुक्मणी जी का भाई राजकुमार रुकमि था।
 
यहां पर जो विवाह संपन्न हुआ उसे शास्त्र भले ही राक्षस विवाह की श्रेणी में रखते हैं परंतु वह एक प्रकार से स्वयंबर भी था ।
 
और इस श्लोक मैं भी यहां प्रतिपादित हो रहा है कि रुकमणी जी ने श्रीकृष्ण जी को पत्र लिखकर के बुलाया था।
 
तो इसे एक प्रकार का स्वयंवर भी कह सकते हैं और स्वयंवर कभी भी निंदनीय नहीं रहा है भारतीय इतिहास में,प्राचीन समाज में।।