"श्रीमद्भगवद्गीता": अवतरणों में अंतर

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[[कुरुक्षेत्र]] की युद्धभूमि में [[श्रीकृष्ण]] ने [[अर्जुन]] को जो उपदेश दिया था वह '''श्रीमद्भगवदगीता''' के नाम से प्रसिद्ध है। यह [[महाभारत]] के [[भीष्मपर्व]] का अंग है। गीता में १८ अध्याय और 700 श्लोक हैं। जैसा गीता के [[आदि शंकराचार्य|शंकर भाष्य]] में कहा है- ''तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यासः सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यैः सप्तभिः श्लोकशतैरु पनिबन्ध''।
 
लगभग 20वीं सदी के शुरू में [[गीता प्रेस गोरखपुर]] (19251923) के सामने गीता का वही पाठ था जो आज हमें उपलब्ध है। 20वीं सदी के लगभग भीष्मपर्व का [[जावा की भाषा]] में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं। [[श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर]] के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल [[संस्कृत]] के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता की गणना [[प्रस्थानत्रयी]] में की जाती है, जिसमें [[उपनिषद्]] और [[ब्रह्मसूत्र]] भी सम्मिलित हैं। अतएव भारतीय परम्परा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है।
 
उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार [[वेद|वेदों]] के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है।