"व्लादिमीर लेनिन": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
Manpreetsir (वार्ता | योगदान) No edit summary |
Manpreetsir (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति 63:
[[प्रथम विश्वयुद्ध|प्रथम महासमर]] के दौरान लेनिन के नेतृत्व में रूसी साम्यवादियों ने सर्वहारा वर्ग की अंतरराष्ट्रीयता का, "साम्राज्यवादी" युद्ध के विरोध का, झंडा ऊपर उठाया। युद्धकाल में उसने मार्क्सवाद की दार्शनिक विचारधारा को और आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया। उसने अपनी पुस्तक "साम्राज्यवाद" (1916) में साम्राज्यवाद का विश्लेषण करते हुए बतलाया कि यह पूँजीवाद के विकास की चरम और आखिरी मंजिल है। उसने उन परिस्थितियों पर भी प्रकाश डाला जो साम्राज्यवाद के विनाश के अनिवार्य बना देती हैं। उसने यह स्पष्ट कर दिया कि साम्राज्यवाद के युग में पूँजीवाद के आर्थिक एवं राजनीतिक विकास की गति सब देशों में एक सी नहीं होती। इसी आधार पर उसने यह निष्पत्ति निकाली कि शुरू शुरू में समाजवाद की विजय पृथक् रूप से केवल दो तीन, या मात्र एक ही, पूँजीवादी देश में संभव है। इसका प्रतिपादन उसने अपनी दो पुस्तकों में किया - "दि यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप स्लोगन" (1915) तथा "दि वार प्रोग्राम ऑफ दि पोलिटिकल रिवाल्यूशन" (1916)।
महासमर के समय लेनिन ने [[स्विटजरलैंड]] में अपना निवास बनाया। कठिनाइयों के बावजूद अपने दल के लोगों का
जुलाई, 1917 में क्रांतिविरोधियों के हाथ में सत्ता चली जाने पर बोलशेविक दल ने अपने नेता के अज्ञातवास की व्यवस्था की। इसी
बाहरी देशों के सैनिक हस्तक्षेपों तथा गृहकलह के तीन वर्षों 1928-20 में लेनिन ने विदेशी आक्रमणकारियों तथा प्रतिक्रांतिकारियों से दृढ़तापूर्वक लोहा लेने के लिए सोवियत जनता का मार्ग दर्शन किया। इस व्यापक अशांति और गृहयुद्ध के समय भी लेनिन ने युद्ध काल से हुई देश की बर्बादी को दूर कर स्थिति सुधारने, विद्युतीकरण का विकास करने, परिवहन के साधनों के विस्तार और छोटी छोटी जोतों को मिलाकर सहयोग समितियों के आधार पर बड़े फार्म स्थापित करने की योजनाएँ आरंभ कर दीं। उसने शासनिक यंत्र का आकार घटाने, उसमें सुधार करने तथा खर्च में कमी करने पर बल दिया। उसने शिक्षित और मनीषी वर्ग से किसानों, मजदूरों के साथ सहयोग करते हुए नए समाज के निर्माणकार्य में सक्रिय भाग लेने का आग्रह लिया।
जहाँ तक सोवियत शासन की विदेश नीति का प्रश्न है, लेनिन
20वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण और असरदार शख़्सियतों में गिने जाने वाले लेनिन की मौत के बाद उनकी पर्सनेलिटी ने बड़े तबके पर गहरा असर डाला।
साल 1991 में सोवियत संघ के बिखरने तक उनका ख़ासा असर जारी रहा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के साथ उनकी वैचारिक अहमियत काफ़ी रही और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट मूवमेंट में उनका ख़ास स्थान रहा।
|