"नाटक": अवतरणों में अंतर

पंक्ति 30:
 
* '''पात्र '''
नाटक में नाटक का अपने विचारों , भावों आदि का प्रतिपादन पात्रों के माध्यम से ही करना होता है। अतः नाटक में पात्रों का विशेष स्थान होता है। प्रमुख पात्र अथवा नायक कला का अधिकारी होता है तथा समाज को उचित दशा तक ले जाने वाला होता है। भारतीय परंपरा के अनुसार वह विनयी , सुंदर , शालीनवान , त्यागी , उच्च कुलीन होना चाहिए। किंतु आज नाटकों में किसान , मजदूर आदि कोई भी पात्र हो सकता है। पात्रों के संदर्भ में नाटककार को केवल उन्हीं पात्रों की सृष्टि करनी चाहिए जो घटनाओं को गतिशील बनाने में तथा नाटक के चरित्र पर प्रकाश डालने में सहायक होते हैं।
:पात्रों का सजीव और प्रभावशाली चरित्र ही नाटक की जान होता है। कथावस्तु के अनुरूप नायक धीरोदात्त, धीर ललित, धीर शांत या धीरोद्धत हो सकता है।
* '''उद्देश्य'''
 
सामाजिक के हृदय में रक्त का संचार करना ही नाटक का उद्देश्य होता है। नाटक के अन्य तत्व इस उद्देश्य के साधन मात्र होते हैं। भारतीय दृष्टिकोण सदा आशावादी रहा है इसलिए संस्कृत के प्रायः सभी नाटक सुखांत रहे हैं। पश्चिम नाटककारों ने या साहित्यकारों ने साहित्य को जीवन की व्याख्या मानते हुए उसके प्रति यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया है उसके प्रभाव से हमारे यहां भी कई नाटक दुखांत में लिखे गए हैं , किंतु सत्य है कि उदास पात्रों के दुखांत अंत से मन खिन्न हो जाता है। अतः दुखांत नाटको का प्रचार कम होना चाहिए।
* '''भाषा शैली '''
नाटक सर्वसाधारण की वस्तु है अतः उसकी भाषा शैली सरल , स्पष्ट और सुबोध होनी चाहिए , जिससे नाटक में प्रभाविकता का समावेश हो सके तथा दर्शक को क्लिष्ट भाषा के कारण बौद्धिक श्रम ना करना पड़े अन्यथा रस की अनुभूति में बाधा पहुंचेगी। अतः नाटक की भाषा सरल व स्पष्ट रूप में प्रवाहित होनी चाहिए।
* '''देशकाल वातावरण'''
देशकाल वातावरण के चित्रण में नाटककार को युग अनुरूप के प्रति विशेष सतर्क रहना आवश्यक होता है। पश्चिमी नाटक में देशकाल के अंतर्गत संकलनअत्र समय स्थान और कार्य की कुशलता का वर्णन किया जाता है। वस्तुतः यह तीनों तत्व ‘ यूनानी रंगमंच ‘ के अनुकूल थे। जहां रात भर चलने वाले लंबे नाटक होते थे और दृश्य परिवर्तन की योजना नहीं होती थी। परंतु आज रंगमंच के विकास के कारण संकलन का महत्व समाप्त हो गया है। भारतीय नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख ना होते हुए भी नाटक में स्वाभाविकता , औचित्य तथा सजीवता की प्रतिष्ठा के लिए देशकाल वातावरण का उचित ध्यान रखा जाता है। इसके अंतर्गत पात्रों की वेशभूषा तत्कालिक धार्मिक , राजनीतिक , सामाजिक परिस्थितियों में युग का विशेष स्थान है। अतः नाटक के तत्वों में देशकाल वातावरण का अपना महत्व है।
* '''संवाद'''
नाटक में नाटकार के पास अपनी और से कहने का अवकाश नहीं रहता। वह संवादों द्वारा ही वस्तु का उद्घाटन तथा पात्रों के चरित्र का विकास करता है। अतः इसके संवाद सरल , सुबोध , स्वभाविक तथा पात्रअनुकूल होने चाहिए। गंभीर दार्शनिक विषयों से इसकी अनुभूति में बाधा होती है। इसलिए इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। नीर सत्ता के निरावरण तथा पात्रों की मनोभावों की मनोकामना के लिए कभी-कभी स्वागत कथन तथा गीतों की योजना भी आवश्यक समझी गई है।
* '''रस '''
:नाटक में नवरसों में से आठ का ही परिपाक होता है। शांत रस नाटक के लिए निषिद्ध माना गया है। वीर या शृंगार में से कोई एक नाटक का प्रधान रस होता है।
 
* '''अभिनय'''
यह नाटक की प्रमुख विशेषता है। नाटक को नाटक के तत्व प्रदान करने का श्रेय इसी को है। यही नाट्यतत्व का वह गुण है जो दर्शक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इस संबंध में नाटककार को नाटकों के रूप , आकार , दृश्यों की सजावट और उसके उचित संतुलन , परिधान , व्यवस्था , प्रकाश व्यवस्था आदि का पूरा ध्यान रखना चाहिए। दूसरे शब्दों में लेखक की दृष्टि रंगशाला के विधि – विधानों की ओर विशेष रुप से होनी चाहिए इसी में नाटक की सफलता निहित है।
:अभिनय भी नाटक का प्रमुख तत्व है। इसकी श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर है। मुख्य प्रकार से अभिनय ४ प्रकार का होता हॅ।
:* १ - आंगिक अभिनय (शरीर से किया जाने वाला अभिनय),
"https://hi.wikipedia.org/wiki/नाटक" से प्राप्त