"भारतीय दर्शन": अवतरणों में अंतर

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महर्षि गौतम रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
 
==== [[वैशेषिक दर्शन]] ====
महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधर्म्य तथा वैधर्म्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। किंतु इस साधर्म्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।
 
==== [[सांख्य दर्शन]] ====
इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत कारणों से ही सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित २४ कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष २५ वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथो का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं भोक्ती नहीं है।
 
==== [[योग दर्शन]] ====
{{मुख्य|योगदर्शन}}
इस दर्शन के रचयिता महर्षि [[पतंजलि]] हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस [http://www.vaidikdarshan.in/2009/02/blog-post.html सिद्धांत] के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इंद्रियां बहिर्गामी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम [[ओ३म्]] का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।
 
==== [[मीमांसा दर्शन]] ====
[[मीमांसासूत्र]] इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है जिसके रचयिता महर्षि [[जैमिनि]] हैं।इस दर्शन में वैदिक [[यज्ञ|यज्ञों]] में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। यदि योग दर्शन अंतःकरण शुद्धि का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कर्तव्यों और अकर्तव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी [[मन्त्र|मंत्रों]] के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।
 
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षड दर्शनों के अलावा लोकायत तथा शैव एवं शाक्त दर्शन भी हिन्दू दर्शन के अभिन्न अंग हैं।
 
==== [[चार्वाक दर्शन]] ====
{{मुख्य|लोकायत}}