"बाइबिल": अवतरणों में अंतर
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किसी न किसी प्रकार चर्च के दुराचरण से ही धर्म और धार्मिक संस्थान में नया संघर्ष आरंभ हो गया। इस अवधि में, साथ ही साथ भूमध्यसागर के पूर्वी तटों पर एक नई शक्ति का उदय हो रहा था और इस्लाम के उमड़ते ज्वार के पूर्व अनेक ईसाई मतावलंबी पश्चिम की ओर बढ़ चढ़ आए थे। यद्यपि वास्तविक पुनर्जागरण कई दशकों बाद आया तथापि ईसाई धर्म के ये विद्वान् और उपासक उसके अग्रदूत थे। उन्होंने लोगों को अनिर्दिष्ट उत्तेजनाओं से भर दिया।
इंग्लैड में पहले पहल अपनी आवाज बुलंद करनेवाले "लोलार्ड" थे। यह एक संप्रदाय था जो जनता में ईसा मसीह के उपदेशों की शिक्षा देता था और चर्च तथा मठ के विचार का विरोध करता था। उनका नेता जॉन विक्लिफ़ अद्भुत साहस और पांडित्यसंपन्न व्यक्ति था। उसने अनुभव किया कि विचारपरिवर्तन के लिए लोगों को ईसा के उपदेशवचनों की जानकारी आवश्यक है। इसके लिए जनभाषा में बाइबिल का अनुवाद आवश्यक हो गया। इस प्रकार उस काल की नवीन चेतना विक्लिफ़ की आवाज में ध्वनित हुई।
विक्लिफ़ उस समय हुआ था जब अँग्रेजी गद्य में बाइबिल के पूर्ण ऐश्वर्य और सौदर्य को अभिव्यक्त करने की बहुत ही कम शक्ति थी। इसका अपना अनुवाद बहुत ही रुक्ष है। शायद अँग्रेजी बोलचाल के संगीत के लिए उसके पास कान ही नहीं था। इब्रानी पद्य की कुछ अपनी निजी विशेषताओं के कारण उसके मूल संस्करण में एक ऐसी भव्यता भी थी और प्रयोग से कहीं अधिक महत्व हिब्रूवाली बाइबिल के शब्दसौंदर्य का था जो कुछ प्राचीन अनुवादों में सहज ही खो गया था। वाक्यखंड में संज्ञा का एक विशेष स्थान होता है और विभक्तियों की आज जैसी अनिवार्यता उस समय थी भी नहीं, क्योंकि यह एक महान वास्तविक कल्पना थी जो यहूदियों की अपनी थी तथा शब्दों के प्रति उनका संवेदन मर्मस्पर्शी था।
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इस प्रकार कुछ शब्दों में ही सामथ्र्य और तीव्रता होती थी क्योंकि वे शब्द लागू न होकर बीज रूप में होते थे। इसके अतिरिक्त प्राचीन धर्मनियम की विषयवस्तु व्यापक रूप से सुगम है। विषयवस्तु के रुचिकर होने और अल्प-समय-साध्य होने के गुणों के कारण इसकी गाथाएँ, वर्णन, नाट्यगीतियाँ (जाब की पुस्तक) भविष्यवाणियाँ, सूक्तियाँ, लघु कथाएँ (रूथ के अध्ययन की कथा) सभी ने मिलकर एक सावयव आकार-प्रकार धारण कर लिया था। अंत में नवीन धर्म नियम (न्यू टेस्टामेंट) में ईसा के वचन हैं। अत: उन्हें समझने में थोड़ी भी चूक अथवा भ्रम हो जाने पर न केवल उलझन ही बढ़ जाती है बल्कि संपूर्ण आशय ही भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं कि गिरजाघरों ने अनुवादों को उचित नहीं समझा।
फिर भी विलियम
कवरडेल के पश्चात् सन् 1611 तक इस दिशा में कई प्रयास किए गए। सात वर्षों के अथक परिश्रम से प्रामाणिक संस्करण प्रस्तुत हुआ। 47 विद्वानों, विशपों ने लैसलॉट ऐंडÜजु की अध्यक्षता में, वेस्टमिंस्टर के दो विश्वविद्यालयों में, इस कार्य को तीन खंडों में पूरा किया।
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