"लोकतंत्र": अवतरणों में अंतर

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छो जनतंत्र तथा शिक्षा
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*(5) मार्क्सवादी विश्लेषण के अनुसार जनता का लोकतंत्र पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की स्थिति है। व्यक्तिगत संपत्ति और वर्गों के उन्मूलन के पश्चात् जब समाजवादी समाज का निर्माण हो जाता है तो वह क्रमशः पूर्ण साम्यवाद की ओर अग्रसर होने लगता है। पूर्ण साम्यवाद की अवस्था में राज्य व्यवस्था का अंत हो जाता है और उसके स्थान पर वास्तविक अर्थ में एक प्रकार का स्व-शासन कायम हो जाता है।
 
= [[समाजवाद|समाजवादी]] समाजों की रचना ने मार्क्सवादी विचारों को और आगे बढ़ाया, लेनिन जिसने रूस में 1917 में प्रथम समाजवादी राज्य की स्थापना की ने मार्क्सवादी चिंतन की नई व्याख्याएं प्रस्तुत की। उसने सर्वहारा के अधिनायकवाद को स्वीकार किया और समाजवादी क्रांति के इसके महत्त्व पर बल दिया, लेकिन उसने इसके साथ यह भी जोड़ दिया कि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद विशाल सर्वहारा संगठन या साम्यवादी दल द्वारा ही प्रयोग में लाया जा सकता है। उसने लोकतंत्र की तीन अवस्थाएं बताईः पूंजीवादी लोकतंत्र, समाजवादी लोकतंत्र और साम्यवादी लोकतंत्र। उसके अनुसार लोकतंत्र राज्य का एक स्वरूप है और वर्ग-विभाजित समाज में सरकार अधिनायकवादी और लोकतांत्रिक दोनों होती है। यह एक वर्ग के लिए लोकतंत्र है तो दूसरे के लिए अधिनायकवाद। बुर्जुआ वर्ग चुंकि अपने हित साधन में पूंजीवादी प्रणाली को नियंत्रित और संचालित करता है, इसलिए उसे सत्ता से बेदखलकर समाजवादी लोकतंत्र को स्थापित करना आवश्यक है। लेनिन स्वीकार करता है कि नव स्थापित समाजवादी राज्य उतना ही दमनात्मक होता है जितना कि पूंजीवादी राज्य। सर्वहारा वर्ग के शासन को लागु करने के लिए यह आवश्यक भी है। चूंकि बुर्जुआ काफी शक्तिशाली होता है, इसलिए समाजवादी लोकतंत्र के आरंभिक दौर में सर्वहारा वर्ग के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह बलपूर्वक पूंजीवादी वर्ग का उन्मूलन कर दे। सर्वहारा के अधिनायकवाद के समक्ष दो लक्ष्य होते हैं: =
 
*(१) [[क्रांति]] को बचाना, और
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• लोकतंत्र राज्य का एक स्वरूप है और वर्ग-विभाजित समाज में सरकार अधिनायकवादी और लोकतांत्रिक दोनों होती है। यह एक वर्ग के लिए लोकतंत्र है तो दूसरे के लिए अधिनायकवाद। बुर्जुआ वर्ग चुंकि अपने हित साधन में पूंजीवादी प्रणाली को नियंत्रित और संचालित करता है, इसलिए उसे सत्ता से बेदखलकर समाजवादी लोकतंत्र को स्थापित करना आवश्यक है।
 
= जनतंत्र के लिए लिक्षा की आवश्यकता =
शिक्षा के क्षेत्र में जनतंत्र के सिधान्तों तथा मूल्यों का समावेश अभी कुछ वर्ष पूर्व से ही हुआ है।इस महत्वपूर्ण परिवर्तन का श्रेय अमरीका के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी को है।उसने बताया है कि “ एक जनतंत्रीय समाज में ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये जिससे प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक कार्यों तथा सम्बन्धों में निजी रूप में रूचि ले सके।इस शिक्षा को मनुष्य में प्रत्येक सामाजिक परिवर्तन के दृढ़तापूर्वक स्वीकार करने की सामर्थ उत्पन्न करनी चाहिये |“ डीवी के इस कथन से जनतंत्र के सिधान्तों तथा मूल्यों का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में किया जा जाने लगा।परिणामस्वरूप अब दिन-प्रतिदिन जनसाधारण की शिक्षा का आन्दोलन चारों कोर जोर पकड़ता जा रहा है।ठीक भी है शिक्षित होएं पर ही व्यक्ति अपने अधिकारों के सम्बन्ध में जागरूक हो सकता है तथा अपने कर्तव्यों में जनहित के लिए निभाने में तात्पर्य हो सकता है।अशिक्षित जनता अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों को नहीं समझ पाती।इससे देश में सत्ताधारियों का एक ऐसा वर्ग बन जाता है दो दूसरे व्यक्तियों के उपर अपनी इच्छाओं को थोपने लगता है।इससे जनतंत्र का मुख्य लक्ष्य-नष्ट हो जाता है।चूँकि जनतंत्रीय व्यवस्था में देश के सभी नागरिक शासन में भाग लेते हैं, इसलिए उन सब महत्व को समझते हुए अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों देश में सर्वसाधारण की अनिवार्य तथा नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है |
 
== शिक्षा का जनतंत्र ==
जनतंत्रीय शिक्षा का अर्थ है – शिक्षा से जनतंत्र की विचारधारा का प्रभाव।शिक्षा में जनतंत्रीय विचारधारा का प्रभाव निम्नलिखित बातों पर पड़ा है –
 
'''(1) समान अवसर प्रदान करना तथा व्यक्तिगत विभिन्नता का आदर करना –''' जनतंत्र में प्रत्येक बालक समाज की एक पवित्र एवं अमूल्य निधि होता है।अत: प्रत्येक बालक को उसकी समस्त शक्तियों के विकास हेतु समाज में अवसर प्रदान किये जा रहे हैं।समान अवसरों के प्रदान करने का अर्थ सब बालकों को एक जैसे अवसर प्रदान करना नहीं है।कारण यह है कि जिन अवसरों से मन्द बुद्धि बाले बालकों को लाभ हो सकता है, उनसे सामान्य बुद्धि वाले बालकों को भी पर्याप्त लाभ होना आवश्यक नहीं है।ऐसी ही , प्रखर बुद्धि बाले बालकों के विकास में भी बाधा आ सकती है यदि उन्हें मन्द अथवा सामान्य बुद्धि वाले बालकों के साथ एक जैसे ही अवसर प्रदान किये जायें।अत: जब शिक्षा प्रदान करते समय व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धांत को दृष्टि रे रखते हुए प्रत्येक बालक की रुचियों, योग्यताओं तथा क्षमताओं को ध्यान में रखा जाता है |
 
'''(2) सार्वभौमिक तथा अनिवार्य शिक्षा''' – जनतंत्र में सरकार की बागडोर जनता के हाथ में होती है।इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को जहाँ एक ओर अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान होना चाहिये वहाँ दूसरी ओर उस पक्षपात तथा अज्ञान के अन्धकार से भी दूर रहना परम आवश्यक है।अत: अब प्रत्येक बालक को बिना किसी भेद-भाव के एक निश्चित स्तर तक अनिवार्य रूप से शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था की जा रही है जिससे वह अपने देश की उचित सरकार का निर्माण कर सके |
 
'''(3) निशुल्क शिक्षा''' – जनतंत्र सार्वभौमिक तथा अनिवार्य एवं समान अवसरों के प्रदान करने में विश्वास रखता है इसका अर्थ यह हुआ है कि शिक्षा में वर्ग-भेद अर्थात निर्धन एवं धनवान के अन्तर का कोई स्थान नहीं है।इसलिए अब शिक्षा सार्वभौमिक तथा अनिवार्य ही नहीं अपितु नि:शुल्क भी होती जा रही है।चूँकि जनतंत्र में शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति का जन्म-सिद्ध अधिकार है , इसलिए अमरीका, रूस, टर्की तथा फ़्रांस एवं जापान आदि सभी अनिवार्य कर दी है।साथ ही उक्त सभी राज्य अंधे, बहरे, गूंगे, लंगड़े, मन्द-बुद्धि तथा कुशाग्र बुद्धि एवं मानसिक न्यूनता ग्रस्त सभी प्रकार के बालकों की शिक्षा का उचित प्रबन्ध कर रहे हैं |
 
'''(4) प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था''' – जनतंत्रीय विचारधारा को दृष्टि में रखते हुए विभिन्न देशों में प्रौढ़ शिक्षा, स्त्री शिक्षा तथा विकलांग व्यक्तियों की शिक्षा पर बल दिय जा रहा है।इस सम्बन्ध में विभिन्न राज्यों में रात्री स्कूलों, सन्डे-कोर्रसिज तथा प्रौढ़-साहित्य की व्यवस्था की जा रही है |
 
'''(5) बाल केन्द्रित शिक्षा''' – जनतंत्रीय विचारधारा के प्रभाव से अब बालक के व्यक्तितिव का निर्माण किया जाता है जिसमें रहते हुए बालक के व्यक्तितिव का सर्वांगीण विकास हो जाये।दूसरे शब्दों में , अब शिक्षा बाल-केन्द्रित होती जा रही है |
 
'''(6) शिक्षण पद्धतियाँ''' – अब बालकों को रुचियों एवं शक्तियों का दमन करने वाली रूढिगत, सामूहिक शिक्षण समाप्त होती जा रही है।परिणामस्वरूप अब बालकों के मस्तिष्क में ज्ञान को बलपूर्वक ठूंसने पर बल नहीं दिया जाता अपितु जनतंत्रीय विधियों का प्रयोग करते हुए ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाता है जिसमें रहते हुए प्रत्येक बालक ज्ञान की खोज स्वयं कर सकें |
 
'''(7) व्यक्तिगत अध्ययन का महत्त्व''' – जनतंत्रीय विचारधारा से प्रभावित होते हुए अब शिक्षक बालकों के व्यक्तिगत अध्ययन के महत्त्व को दृष्टि में रखते हुए उनकी पारिवारिक-परिस्थितियों, मनोवैज्ञानिक विशेषताओं सांस्कृतिक प्रष्टभूमि तथा अभिवृतियों को समझने का प्रयास कर रहे है |
 
'''(8) सामाजिक क्रियायें'''- अब स्कूल में केवल पुस्तकीय ज्ञान पर बल न देते हुए सामाजिक-क्रियायों तथा सामाजिक-तत्वों को मुख्य स्थान दिया जाता है जिससे प्रत्येक बालक सामाजिक अनुभव प्राप्त कर सके |
 
'''(9) छात्र परिषद्''' – जनतंत्रीय भावना से प्रेरित होते हुए अब स्कूलों में छात्र-संघ अथवा छात्र-परिषद् आदि को प्रोत्साहन दिया जाता है |
 
'''(10) शिक्षक के व्यक्तित्व का सम्मान''' – जनतंत्रीय व्यवस्था में शिक्षक के व्यक्तितिव को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।अत: जनतंत्रीय भावना से प्रेरित होते हुए अब शिक्षक से जहाँ एक ओर पाठ्यक्रम के निर्माण में सहयोग किया जा रहा है, वहाँ दूसरी ओर उसे शिक्षण कार्य के लिए भी आवशयकतानुसार शिक्षण-विधियों में परिवर्तन करने की स्वतंत्रता प्रदान की जा रही है।यही नहीं, अब शिक्षक को अपनी व्यवसायिक कुशलता को बढ़ाने के लिए भी अनके सुविधायें दी जा रही है |
 
'''(11) स्कूल प्रशासन''' – जनतंत्रीय भावना के प्रभाव से अब स्कूल के संगठन एवं प्रशासन कार्यों में बालकों को भाग लेने के अवसर दिये जा रहे हैं जिससे उनमें स्वशासन की भावना विकसित हो जाये |
 
'''(12) बुद्धि परीक्षायें'''- अब बालकों की मानसिक योग्यता का मुल्यांकन करने के लिए बुद्धि परीक्षाओं का प्रयोग किया जा रहा है |
 
'''(13) बालक का शारीरिक स्वास्थ्य''' – बालक को शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ रखने के लिए अब स्कूल में जहाँ एक ओर नाना प्रकार के खेलों का प्रबन्ध किया जा रहा है, वहाँ दूसरी ओर स्कूल के अस्पताल का डॉक्टर प्रत्येक बालक के शारीरिक स्वाथ्य का परीक्षा करके उसे पूर्ण स्वस्थ बनाने के लिए अपना निजी परमर्श भी देता है |
 
'''(14) स्कूल''' – जनतंत्रीय भावना के प्रभाव से अब स्कूल को ऐसा स्थान समझा जाता है जहाँ पर प्रत्येक बालक नागरिकता की शिक्षा के साथ-साथ विश्व-बंधुत्व की शिक्षा प्राप्त करते हुए मानवता के आदर्शों को विकसित कर सकता है।दूसरे शब्दों में, अब स्कूल को समाज का लघू रूप माना जाने लगा है |
 
'''(15) शिक्षा के समस्त साधनों में सहयोग''' – जनतंत्रीय समाज में शिक्षा के समस्त साधनों में परस्पर सहयोग होता है।अत: अब जनतंत्र के प्रभाव से परिवार, स्कूल, समुदाय तथा धर्म एवं राज्य आदि शिक्षा के समस्त साधनों में सहयोग स्थापित करने के लिए कदम उठाये जा रहे हैं |
 
== जनतंत्र तथा शिक्षा के उद्देश्य ==
जनतंत्र में शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं –
 
'''(1) जनतंत्र के मूल्यों का विकास''' – जनतंत्र की सफलता विशाल भवनों, विधान-सभाओं, विधान-परिषदों तथा सांसदों से नहीं होती अपितु ऐसे नागरिकों से होती है जो जनतंत्र के मूल्यों का पालन करते हों।इस दृष्टि से जनतंत्रीय शिक्षा का प्रथम उद्देश्य बालकों में जनतंत्र के मूल्यों का विकास करना है।कोई भी पुस्तकीय ज्ञान उस उद्देश्य को उस समय तक प्राप्त नहीं कर सकता जब तक बालकों को स्कूल से उपयुक्त अवसर न प्रदान किये जायें।वस्तु-स्थिति यह है कि बालक जनतांत्रिक ढंग से रहना उसी सके सीख सकता है जब उसे जनतंत्रीय ढंग से रहने के अवसर उपलब्ध हों।अत: स्कूल का सम्पूर्ण वातावरण अर्थात प्रत्येक क्रिया पाठ्यक्रम सम्बन्धी अथवा सहगामी, हर प्रकार से सम्बन्ध, चाहे वे बालकों के आपसी हों अथवा शिक्षकों और बालकों के, जनतंत्रीय मूल्यों के अनुसार होने चाहिये |
 
'''(2) उत्तम अभिरुचियों का विकास –''' जनतंत्रीय शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बालकों में उत्तम तथा उपयोगी अभिरुचियों का विकास करना है।रुचियाँ बालक के चरित्र का निर्माण करती है तथा उसको जीवन सम्पन्नता प्रदान करती है।इसीलिए प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हरबार्ट ने बहुमुखी रुचियों के विकास पर बल दिया है।इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालकों को विभिन्न प्रकार की क्रियाओं को करने के लिए अवसर मिलने चाहिये।विभिन्न क्रियाओं में भाग लेने से उनकी कार्य में रूचि जागृत होगी।ध्यान देने की बात है कि बालक में जितनी अधिक उपयुक्त एवं श्रेष्ट अभिरुचियाँ विकसित हो जायेंगी वह उतना ही अधिक सुखी, कुशल तथा सन्तुलित जीवन व्यतीत कर सकेगा |
 
'''(3) व्यवसायिक कुशलता का विकास''' – जनतंत्र की सफलता के लिए नागरिकों का आर्थिक दृष्टि से हीन व्यक्ति अपने असली लक्ष्य से विमुख हो सकता है तथा धनवानों के हाथ का खिलौना बनकर अपने बहुमूल्य वोट को भी अवांछनीय व्यक्ति को दे सकता है।अत: जनतंत्रीय शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात वे किसी व्यवसाय को अपनाकर अपना भार स्वयं ही वहन करते हुए राष्ट्र की यथाशक्ति सेवा कर सकें |
 
'''(4) अच्छी आदतों का विकास –''' जनतंत्रीय शिक्षा का चौथा उद्देश्य बालकों में अच्छी आदतों का विकास करना है।इसका कारण यह है कि आदतें ही अच्छे अथवा बुरे कार्यों की नीवं डालती है।अत: जनतन्त्र को सफल बनाने के लिए बालकों में आरम्भ से ही अच्छी आदतों का विकास करना चाहिये |
 
'''(5) विचार शक्ति का विकास''' – जनतंत्रीय शिक्षा का पांचवां उद्देश्य बालकों में अच्छी आदतों का विकास करना है।इसका कारण है कि आज के बालक कल के नागरिक हैं।इन्हीं बालकों को निकट भविष्य में राष्ट्र की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं पर विचार करना है।अत: इन्हें शिक्षा के द्वारा आरम्भ से ही विभिन्न समस्याओं के विषय में स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने तथा अपना निजी निर्णय लेने की आदत डालनी चाहिये |
 
'''(6) सामाजिक दृष्टिकोण का विकास –''' सामाजिक दृष्टिकोण का विकास करना जनतंत्रीय शिक्षा का छठा महत्वपूर्ण उद्देश्य है।इस उद्देश्य का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक बालक यह समझने लगे कि वह समाज आ अंग है तथा उसका सम्पूर्ण जीवन समाज के ही लिए है।इस भावना के विकसित हो जाने से वह समाज-हित के लिए अपने निजी हित को त्यागने में कोई संकोच नहीं करेगा।अत: इस उद्देश्य के अनुसार शिक्षा में ऐसी क्रियाओं को महत्त्व दिया जाना चाहिये जिनके द्वारा बालकों को सामाजिक अभिरुचियाँ विकसति हो जायें वे अपने सहयोगीयों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करना सीख जायें तथा उनमें उतरदायित्वों को समझने एवं उनके पालन करने की भावना विकसित हो जाये |
 
'''(7) व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास-''' जनतंत्रीय शिक्षा का सातवाँ उद्देश्य व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास करना है।इसका कारण यह है कि वर्तमान संसार संघर्षों तथा कटुताओं का संसार है।ऐसे संसार में सामंजस्यपूर्ण व्यक्तित्व वाला व्यक्ति ही सफल हो सकता है।अत: शिक्षा को बालक के व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास करना चाहिये जिससे वह एक चरित्रवान, योग्यता तथा सबल नागरिक के रूप में अपना विकास तथा समाज का कल्याण कर सके।हुमायूँ कबीर ने ठीक ही लिखा है – “शिक्षा को मानव प्राकृति के सब पहलुयों के लिए सामग्री जुटानी चाहिये तथा मानवशास्त्र, विज्ञान एवं प्रौधोगिकी को समान महत्त्व देना चाहिये जिससे कि वह मनुष्य को सब कार्यों को निष्पक्षता, कुशलता तथा उदारता से करने के योग्य बना सकें।“
 
'''(8) नेतृत्व का विकास –''' जनतंत्रीय शिक्षा का आठवाँ उद्देश्य बालकों में नेतृत्व का विकास करना है।इसका कारण यह है कि आज के बालक शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्भालेंगे।अत: जनतंत्र को सफल बनाने के लिए शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार करनी चाहिये कि वे बड़े होकर नागरिक के रूप में देश के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों का कुशलतापूर्वक नेतृत्व कर सकें |
 
'''(9) राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय भावना का विकास''' – जनतंत्र को सफल बनाने के लिए शिक्षा का नवां उद्देश्य बालकों में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय भावना का विकास करना है।ध्यान देने की बात है कि जनतंत्र जहाँ एक ओर राष्ट्रीय भावना के विकास पर बल देना है वहाँ दूसरी ओर वह अपनी सफलता के लिए अंतर्राष्ट्रीय भावना का संचार करना भी अपना परम कर्त्तव्य समझता है।इसका कारण यह है कि आधुनिक युग में कोई राष्ट्र अकेला जीवित नहीं रह सकता।उसे अपने निजी अस्तित्व को बनाये रखने के लिए संसार के अन्य राष्ट्रों से भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखना आवश्यक है।अत: शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से की जानी चाहिये कि जहाँ बालकों में एक ओर राष्ट्रीय भावना विकसित हो, वहाँ दूसरी ओर उनमें अंतर्राष्ट्रीय भावना का विकास भी हो जाये |
 
== भारतीय जनतंत्र में शिक्षा के उद्देश्य ==
भारतीय जनतंत्र को सफल बनाने के लिए माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भारत की राजनीतिक, सामाजिक, तथा आर्थिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों की चर्चा की है –
 
'''(1) जनतांत्रिक नागरिकता का विकास'''- भारतवर्ष एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है।इसे सफल बनाने के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को सच्चा, इमानदार तथा कर्मठ नागरिक बनाना परम आवश्यक है।चूँकि आज के बालक कल के नागरिक बनेंगे, इसीलिए प्रत्येक बालक में जनतांत्रिक नागरिकता का विकास करना भारतीय शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है।वस्तुस्थिति यह है कि जनतंत्र में नागरिकता एक प्रकार की चुनौती होती है।इस चुनौती का सामना करने के लिए प्रत्येक बालक में उसकी प्रकृति के अनुसार ऐसे बौद्धिक, सामाजिक, तथा नैतिक गुणों को विकसित करना परम आवशयक है जिनके आधार पर वह नागरिक के रूप में देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा तथा सांस्कृतिक सभी समस्याओं के विषय में स्पष्ट रूप से चिन्तन करके अपना निजी निर्णय ले सके और उन्हें सुलझा सके।इन सभी शक्तियों को विकसित करने के लिए बालकों का बौद्धिक विकास होना चाहिये।बौद्धिक विकास के हो जाने से वे सत्य-असत्य तथा वास्तवकिता एवं प्रचार में अन्तर समझते हुए अन्ध-विश्वासों तथा निरर्थक परम्पराओं का उचित विश्लेषण करके अपने जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं को आसानी से सुलझा सकेंगे।चूँकि स्पष्ट चिन्तन का भाषण देने तथा लेखन की स्पष्टता से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, इसलिए प्रत्येक बालक को शिक्षा के द्वारा इस योग्य बनाना परम आवश्यक है कि वह अपने भाषणों तथा लेखों के द्वारा अपने विचारों तो स्पष्ट करते हुए जनमत प्राप्त कर सकें।
 
'''(2) कुशल जीवन यापन कला की दीक्षा''' – कुशल जीवन यापन की कला में दीक्षित करना भारतीय शिक्षा का दूसरा उद्देश्य है।कोई भी व्यक्ति एकान्त में रहकर न तो जीवन यापन ही कर सकता है और न ही पूर्णरूपेण विकसित हो सकता है।व्यक्ति तथा समाज दोनों के विकास के लिए यह आवशयक है कि व्यक्ति सह-अस्तित्व की आवश्यकता को समझते हुए व्यवहारिक अनुभवों द्वारा सहयोग के महत्त्व का मुल्यांकन करना सीखे।अत: सफल सामुदायिक जीवन व्यतीत करने के लिए बालकों में सहयोग , सहनशीलता सामाजिक चेतना तथा अनुशासन आदि सामाजिक गुणों का विकास किया जाना चाहिये जिससे प्रत्येक बालक एक-दूसरे के विचारों का आदर करते हुए घुलमिल कर रहना सीख जाये |
 
'''(3) व्यवसायिक कुशलता की उन्नति''' – जनतंत्र की सफ़लत कुशल व्यवसायिओं तथा आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न नागरिकों पर निर्भर करती है।अत: भारतीय शिक्षा का तीसरा उद्देश्य बालकों में व्यवसायिक कुशलता के लये व्यवसायिक प्रशिक्षण परम आवश्यक है।अत: बालकों के मन में आरम्भ से ही श्रम के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करनी चाहिये, हस्तकला के कार्य पर बल देना चाहिये तथा पाठ्यक्रम में विभिन्न व्यवसायों को सम्मिलित करना चाहिये जिससे प्रत्येक बालक अपनी रूचि के अनुसार उस व्यवसाय को चुन कर उसमें उचित प्रशिक्षण प्राप्त कर सके जिसे वह अपने आगामी जीवन में अपनाना चाहें।इससे हमें विभिन्न व्यवसायों के लिए कुशल कारीगर भी प्राप्त हो सकेंगे तथा औधोगिक प्रगति के कारण देश की धनधान्य से परिपूर्ण हो जायेगा |
 
'''(4) व्यक्तित्व का विकास''' – जनतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति बालक को सृष्टि की अमूल्य एवं पवित्र निधि समझा जाता है।अत: भारतीय शिक्षा का चौथा उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का विकास करना है।इस उद्देश्य के अनुसार बालकों को क्रियात्मक कार्यों को करने के लिये प्रेरित करना चाहिये जिससे उनमें सहित्यिक, कलात्मक तथा सांस्कृतिक आदि विभिन्न प्रकार की रुचियों का निर्माण हो जाये।रुचियों के विकसित हो जाने से बालकों को आत्माभिव्यक्ति, सांस्कृतिक तथा सामाजिक सम्पति की प्राप्ति, अवकाश काल के सदुपयोग करने की योग्यता तथा चहुंमुखी विकास में सहायता मिलेगी।इस दृष्टि से बालकों के विकास हेतु उन्हें रचनात्मक क्रियाओं में भाग लेने के लिए अधिक से अधिक अवसर प्रदान किये जाने चाहिये |
 
'''(5) नेतृत्व के लिए शिक्षा –''' जनतंत्र सफल बनाने के लिए योग्य, कुशलता एवं अनुभवी नेताओं की आवश्यकता होती है।अत: नेतृत्व की शिक्षा प्रदान करना भारतीय शिक्षा का पांचवां महत्वूर्ण उद्देश्य हैं।इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालकों में उचित शिक्षा द्वारा अनुशासन, सहनशीलता, त्याग सामाजिक समस्याओं की समझदारी तथा नागरिक एवं व्यावहारिक कुशलता को विकसित, करना चाहिये जिससे यही बालक बड़े होकर नागरिक के रूप में देश के राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक तथा सांस्कृतिक आदि दभी क्षेत्रों में सफल नेतृत्व कर सकें |
 
== जनतंत्र तथा पाठ्यक्रम ==
जनतंत्र राज्य में पाठ्यक्रम की रचना जनतंत्रीय आदर्शों एवं मूल्यों को प्राप्त करने के लिए जाती है।अत: जनतंत्रीय पाठ्यक्रम के अन्तर्गत उन विषयों को मुख्य स्थान दिया जाता है जिसके अध्ययन से बालकों में उत्तम मनोवृतियाँ, उत्तम आभ्यास तथा योग्यता एवं सूझ-बूझ विकसित हो जायें और वे सच्चे नागरिक बनकर सफल जीवन व्यतीत कर सकें।इस दृष्टि से जनतंत्रीय पाठ्यक्रम निम्नलिखित सिधान्तों पर आधारित होता है –
 
(1) '''बहुमुखी''' – जनतंत्रीय पाठ्यक्रम बहुमुखी होता है।इसके अन्तर्गत स्कूल का सम्पूर्ण कार्यक्रम –कक्षा के कार्य-कलाप, सहगामी क्रियायें, खेल-कूद एवं परीक्षा आदि सभी आ जाते हैं।इस प्रकार जनतंत्रीय पाठ्यक्रम अत्यंत विस्तृत होता है |
 
(2) '''सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति –''' जनतंत्रीय पाठ्यक्रम की रचना करते समय सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति को ध्यान में रखा जाता है जिससे बालकों में सामाजिक भावना विकसित हो जाये।इस दृष्टि से जनतंत्रीय पाठ्यक्रम में सामाजिक संगठन तथा सभाओं आदि को मुख्य स्थान दिया जाता है |
 
(3) '''लचीलापन –''' जनतंत्रीय पाठ्यक्रम लचीला होता है।इसमें कुछ आवश्यक विषय तो बुनियादी पाठ्यक्रम के रूप में प्रत्येक बालक को अनिवार्य रूप से अध्ययन करने होते हैं।शेष विषयों को व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर प्रत्येक बालक को अपनी-अपनी रुचियों, योग्यताओं तथा आवश्यकताओं के अनुसार ऐच्छिक रूप से अध्ययन करने की स्वतंत्रता होती है |
 
(4) '''स्थानीय आवश्यकताओं पर बल –''' जनतंत्रीय पाठ्यक्रम का निर्माण स्थानीय आवश्यकताओं एवं साधनों के आधार पर किया जाता है।इस पाठ्यक्रम में समय, स्थान तथा प्रगति एवं आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किये जा सकते हैं |
 
(5) '''व्यवसायिक आवशयकताओं की व्यवस्था –''' जनतंत्रीय पाठ्यक्रम व्यवसायिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है |
 
(6) '''क्रिया पर बल –''' जनतंत्रीय पाठ्यक्रम बालकों की वृधि को विकसित करने के लिए क्रिया के सिधान्त पर बल देता है।इस दृष्टि से इस पाठ्यक्रम में शिक्षा द्वारा बालकों के मस्तिष्क में बने बनाये पूर्ण विचारों, अभिवृतियों तथा निष्कर्षों को बलपूर्वक थोपने की अपेक्षा ऐसी क्रियाओं पर बल दिया जाता है जिनमें भाग लेने से सभी बालक अपने निजी अनुभवों द्वारा किसी निष्कर्ष पर आ सकें |
 
(7) '''अवकाश काल की क्रियाओं को स्थान –''' जनतंत्रीय पाठ्यक्रम में ऐसी क्रियाओं को भी सम्मिलित किया जाता है जिनमें भाग लेते हुए अवकास कला का सदुपयोग किया जा सके |
 
== जनतंत्र तथा शिक्षण पद्धतियाँ ==
जनतंत्र के आदर्शों, मूल्यों तथा भावनाओं का शिक्षण-पद्धतियों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है।चूँकि जनतंत्र में बालक को सृष्टि की अमूल्य निधि समझते हुए उसके यक्तित्व का आदर किया जाता है, इसलिए जनतंत्रीय समाज में समस्त शिक्षण –पद्धतियाँ पर प्रकाश डाल रहे हैं –
 
'''(1)''' जनतंत्र का मूल सिधान्त क्रियाशीलता है।अत: जनतंत्रीय समाज में पुराने ढंग से पढ़ाने वाली निष्क्रिय शिक्षण-पद्धतियों की अपेक्षा सक्रिय शिक्षण-पद्धतियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है |
 
'''(2)''' स्वतंत्रता जनतंत्र की आत्मा है।अत: जनतंत्रीय शिक्षण-पद्धतियाँ बालकों को स्वयं अपने अनुभवों द्वारा सीखने की स्वतंत्रता प्रदान करती है।मान्टेसरी-पद्धति, योजना पद्धति, डाल्टन-पद्धति, हरिसटिक पद्धति तथा प्रयोगशाल पद्धति एवं प्रयोगात्मक-पद्धति आदि प्रमुख जनतंत्रीय शिक्षण-पद्धतियां हैं।इन सभी शिक्षण पद्धतियों में बालक को स्वयं क्रिया के द्वारा ज्ञान को खोजने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है।प्रत्येक बालक को ज्ञान प्राप्त करते समय शिक्षक से प्रशन पूछने तथा तर्क एवं आलोचना करने की स्वतंत्रता होती है।उक्त सभी शिक्षण पद्धतियों का प्रयोग करते समय शिक्षक बालकों को ज्ञान के विस्तृत क्षेत्र में अन्वेषण करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है तथा आवश्यकता पड़ने पर मित्र एवं पर्थ प्रदर्शक के रूप में समुचित सहयता देते हुए मार्ग दर्शन भी करता रहता है।इस प्रकार जनतंत्रीय शिक्षण पद्धतियों वस्तविक जीवन के अनुभवों द्वारा बालकों में विभिन्न समस्याओं को सुलझाने की योग्ताया विकसति करती हैं जिसमें वे आगे चलकर सच्चे नागरिक बन सकें |
 
'''(3)''' जनतंत्रीय शिक्षण पद्धतियों के द्वारा बालकों की बुद्धि को पूर्णरूपेण विकसित किया जाता है।बालकों को जो भी कार्य डे जाते हैं वे न अधिक सरल होते हैं और न अधिक कठिन।दूसरे शब्दों में, ये कार्य न तो इतने सरल ही होते हैं कि बालकों को सोचने-विचारने की आवशयकता अवश्य पड़ती है।इससे बालकों में सोचने-विचारने तथा निर्णय लेने की शक्तियाँ विकसति होती है जो आगे चलकर उन्हें नागरिक के रूप में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक , आर्थिक तथा सांस्कृतिक एवं सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में सहायता प्रदान करती है |
 
== जनतंत्र तथा अनुशासन ==
अनुशासन जनतंत्र की कुंजी है।परन्तु अनुशासन कैसा ? जनतंत्र तानाशाही अथवा दमनात्मक अनुशासन का खण्डन करते हुए स्वानुशासन पर बल देता है।अत: जनतंत्रीय स्कूल के बालकों में स्वानुशासन की भावनाओं को विकसित करने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाता है –
 
'''(1)''' जनतंत्रीय स्कूल में शिक्षक एक तानाशाह अथवा पुलिस का सिपाही नहीं अपितु बालकों का मित्र एवं पथ-प्रदर्शक होता है।उसका कार्य किसी बालक पर अनावश्यक दबाव न डालते हुए अपने प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण  व्यवहार के द्वरा ऐसे सुन्दर, सरल तथा प्रभावपूर्ण वातावरण का निर्माण करना है जिसमें रहते हुए बालकों में स्वानुशासन की भावना स्वत: ही विकसित हो जाये |
 
(2) जनतंत्रीय स्कूल में ऐसी क्रियाओं को प्रतिपादित किया जाता है जिनसे सभी बालक आवश्यक नियमों का पालन करते हुए अपनी-अपनी रुचियों के अनुसार निरन्तर भाग लेते रहते हैं।इससे उनमें स्वनुशासन की भावना विकसित होती रहती है |
 
(3) जनतंत्रीय स्कूल की व्यवस्था तथा उसके शासन संबंधी कार्यों में भी बालकों को सक्रिय रूप से भाग लेने के अवसर प्रदान किये जाते हैं।इससे सभी बालक अपने आप को सक्रिय रूप से भाग लेने के अवसर प्रदान किये जाते हैं।इससे सभी बालक अपने आप को स्कूल का एक अंग समझने लगते हैं जिससे शासन में अनुशासन के महत्त्व को समझते हुए वे स्वयं भी अनुशासन में रहना सीख जाते हैं |
 
(4) जनतंत्रीय स्कूल में प्रत्येक बालक को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाती है।इससे अनुशासनहीनता का प्रश्न ही नहीं उठता |
 
(5) जनतंत्रीय स्कूल में बालकों को विधार्थी-परिषद्, विधार्थी लोक सभा तथा विधार्थी सम्मेलन आदि को संगठित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।सभी बालक इन सबको सुचारू रूप से चलाने के लिए मिलजुलकर आवशयक नियम बनाते हैं तथा स्वनिर्मती नियमों का पलान भी करते हैं।इस प्रकार बालकों पर अनुशासन बाहर से नहीं लादा जाता अपितु उनके अन्दर से उत्पन्न किया जाता है |
 
(6) जनतंत्रीय स्कूल में बालकों को उनके कर्तव्यों तथा अधिकारों के प्रति जागरूकता किया जाता है तथा उनको सामाजिक क्रियाओं द्वारा सामाजिक नियंत्रण का महत्त्व बताया जाता है।इस प्रकार जनतंत्रीय देशों में अनुशासन की समस्या का समाधान बल प्रयोग द्वारा नहीं किया जाता अपितु बालकों में ऐसी भावनाओं का विकास किए जाता है जिनसे उनमें स्वानुशासन में रहने की भावना स्वयं ही उत्पन्न हो जाये और वे इसके महत्त्व का अनुभव करने लगें |
 
== जनतंत्र तथा शिक्षक ==
जनतंत्रीय व्यवस्था में शिक्षक का स्थान एक मित्र, पथ-प्रदर्शक तथा समाज सुधारक के रूप में होता है।ऐसे शिक्षक में निम्नलिखित गुण होते हैं –
 
'''(1)''' जनतंत्रीय व्यवस्था में शिक्षक जनतंत्र के मूल्यों से ओत-प्रोत होता है।अत: वह अपने प्रेम तथा सहानभूति व्यवहार के द्वारा प्रत्येक बालक में जनतांत्रिक मूल्यों को विकसित करना परम आवश्यक समझता है।
 
'''(2)''' ऐसी व्यवस्था में शिक्षक प्रत्येक बालक को सृष्टि की पवित्र निधि समझता है।अत: वह व्यक्तिगत विभिन्नता के सिधान्त में विश्वास रखते हुए प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता एवं समान अवसर प्रदान करता है |
 
'''(3)''' जनतंत्रीय व्यवस्था में शिक्षक प्रत्येक बालक को सृष्टि की पवित्र निधि समझता है।अत: वह ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जिसमें रहते हुए प्रत्येक बालक का सर्वांगीण विकास होता रहे |
 
'''(4)''' चूँकि जनतंत्र की सफलता सुयोग्य तथा सचरित्र नागरिकों पर निर्भर करती है, इसलिए ऐसी व्यवस्था में प्रत्येक शिक्षक बालक को जनतांत्रिक नागरिक बनाने के लिए समाज तथा अभिभावकों का अधिक से अधिक सहयोग प्राप्त करता है |
 
'''(5)''' जनतंत्रीय व्यवस्था में प्रत्येक शिक्षक को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का पूर्ण ज्ञान होता जा रहा है।अत: वह बालकों में इस प्रकार की जागरूकता उत्पन्न करना परम आवशयक समझता है |
 
'''(6)''' ऐसी व्यवस्था में प्रत्येक शिक्षक को अपने विषय की पूर्ण योग्यता होती है।अत: वह प्रत्येक बालक को उचित पथ-प्रदर्शन द्वारा इस योग्य बनाने का प्रयास करता है कि वह अपने भावी जीवन में आने वाले प्रत्येक समस्या को आसानी से सुलझा सके |
 
== जनतंत्र तथा स्कूल-प्रशासन ==
जनतंत्रीय व्यस्था में स्कूल का प्रशासन के आदर्शों एवं मूल्यों पर आधारित होता है।इससे जहाँ एक ओर देश के लिए सुयोग्य तथा सचरित्र नागरिकों का निर्माण होता है वहाँ दूसरी ओर विभिन्न क्षेत्रों का लिए उचित नेतृत्व का प्रशिक्षण भी होता है।परिणामस्वरूप देश उतरोतर उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहता है।जनतंत्रीय व्यवस्था में स्कूल के प्रशासन में अधोलिखित विशेषतायें पायी जाती है - -
 
'''(1)''' जनतंत्रीय व्यवस्था में स्कूल का संगठन जनतंत्रीय भावना पर आधारित होता है।यूँ तो स्कूल का प्रशासन पूर्णतया शिक्षक-मण्डल, प्रधानाचार्य तथा बालकों के सहयोग से चलता है परन्तु इसका अधिकतर भार शिक्षकों के उपर ही होता है।सभी शिक्षक मिल-जुलकर स्कूल की नीति का निर्माण करते हैं, पाठ्यक्रम के निर्माण में सहयोग प्रदान करते हैं, कक्षा के कार्यों की योजनायें बनाते हैं , पुस्तकों का चयन करते हैं तथा रचनात्मक कार्यों का संगठन करते हैं |
 
'''(2)''' ऐसी व्यवस्था में स्कूल के प्रधानाचार्य तथा प्रबंधक एवं व्यवस्थापक द्वारा शिक्षकों को उत्क्रमणशीलता को प्रोत्साहित किया जाता है |
 
'''(3)''' जनतंत्रीय व्यवस्था में शिक्षा अधिकारीयों को शिक्षकों के कार्य की आलोचना करने का अधिकतर तो अवश्य होता है, परन्तु यह आलोचना व्यंग के रूप में न होकर रचनात्मक ढंग से की जाती है |
 
'''(4)''' ऐसी व्यवस्था में प्रधानाचार्य अपनी योजनाओं को शिक्षकों तथा बालकों पर बलपूर्वक नहीं थोपता अपितु स्कूल का समस्त कार्य सबके सहयोग की भावना पर आधारित होता है |
 
'''(5)''' जनतंत्रीय व्यवस्था में अभिभावकों, शिक्षकों तथा प्रधानाचार्य एवं स्कूल के निरीक्षकों के आपसी सम्बन्ध जनतंत्रीय भावना पर आधारित होते हैं |
 
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि जनतंत्रीय व्यवस्था में स्कूल का प्रशासन परस्पर प्रेम, सहयोग तथा सहानभूति एवं सह्करिकता के आधार पर चलता रहता है |
 
== भारत में जनतंत्र और शिक्षा ==
15 अगस्त सन 1947 ई० को अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त होकर भारत जनतंत्र के सिधान्तों से प्रेरित होते हुए स्वतंत्रता, समानता, बन्धुता तथा न्याय के आधार पर जनतंत्रीय सरकार का गठन किया।'''26''' नवम्बर सन 1949 ई० को भारतीय संविधान बनकर तैयार हुआ।इस संविधान को 26 जनवरी सन 1950 ई० को लागू करके यह घोषित कर दिया गया कि भारत एक सम्पूर्ण-प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य है जो सम्पूर्ण भारतीय जनता के लिए विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, तथा धर्म उपासना की स्वतंत्रता, अवसर की समानता तथा सभी नागरिकों में बंधुत्व की भावना को विकसित करके राजनीतिक,आर्थिक एवं सामाजिक न्याय की आवश्यकता करेगा।चूँकि इन चारों आदर्शों को प्राप्त करने के लिए शिक्षा को परम आवशयक समझा गया, इसलिए संविधान में धारा 45 के अनुसार यह घोषणा कर दी गई कि देश के सभी राज्य संविधान के लागू होने की तिथि से दस वर्ष के अन्दर चौदह वर्ष तक के प्रत्येक बालक के लिए अनिवार्य तथा नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेंगे।संविधान की उपर्युक्त घोषणा के अनुसार प्रत्येक राज्य सरकार सामान्य तथा स्वस्थ बालकों के अतिरिक्त, गूंगे, बहरे, लंगड़े, अंधे तथा मंद एवं प्रखर बुद्धि वाले सभी बालकों की शिक्षित करने के लिए प्राथमिक, माध्यमिक तथा तकनीकी आदि सभी प्रकार, के स्कूलों तथा विश्वविधालयों एवं महाविधालयों का आयोजन कर रही है |
 
चूँकि जनतंत्र की सफलता के लिए राष्ट्र में एकता की भावना का विकसित होना परम आवशयक है, इसलिए प्रत्येक राज्य की सरकार यह प्रयास कर कर रही है कि देश का प्रत्येक नागरिक जातीयता, प्रान्तीयता, तथा भाषा आदि के भेद-भावों से ऊपर उठकर एकता के सूत्र में बंध जाये।इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जहाँ एक ओर देश के सभी बालकों की शिक्षा का प्रबन्ध किया जा रहा है वहाँ दूसरी ओर प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था भी की जा रही है।इसमें सन्देह नहीं है कि भारतीय जनतंत्र को सफल बनाने के लिए केन्द्रीय तथा राज्य सरकारें सभी मिलकर अथक प्रयास कर रही हैं, परन्तु इतना सब कुछ होते हुए भी देश की जनता में जनतंत्र के आदर्शों एवं मूल्यों को विकसित नहीं किया जा सका है।परिणामस्वरूप भारत में जनतंत्र इतना सफल नहीं हो पाया है जितना कि होना चाहिये था। इस असफलता का एकमात्र कारण है – शिक्षा की कमी |
 
धनाभाव के कारण न तो अभी तक संविधान की घोषणा के अनुसार चौदह वर्ष तक के बालकों की अनिवार्य तथा नि:शुल्क शिक्षा हो पाई है और न ही अभी प्रौढ़ शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था हुई है।यही नहीं, केन्द्रीय सरकार की ओर से न नियुक्त किये विभिन्न आयोगों द्वारा निर्धारित किये हुए शिक्षा के उद्देश्य भी अभी एक केवल पुस्तकों तक ही सीमित दिखाई दे रहें हैं।इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए न तो जनतंत्रीय सिधान्तों के अनुसार भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम का ही निर्माण किया गया है और न ही जनतांत्रिक शिक्षण-पद्धतियों का प्रयोग।बालकों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता तथ शिक्षा-अधिकारीयों, प्रबंधकों, प्रधानाचार्यों तथा शिक्षकों एवं बालकों के बीच बढ़ता हुआ तनाव आदि सभी बाते इस बात को सिध्द करती हैं कि हमरे यहां शिक्षा में जनतंत्र असफल हो गया है।चूँकि जनतंत्र की सफलता ऐसे सुयोग्य, सचरित्र तथा सुशिक्षित नागरिकों के उपर निर्भर करती है जो अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का पालन करते हुए जनतंत्र के आदर्शों एवा मूल्यों के अनुसार जीवन व्यापन करते हों, इसलिए उक्त सभी गुणों से परिपूर्ण नागरिकों ने निर्माण हेतु भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है।यदि हमारी सरकार इस ओर सतर्क हो जाये तो भारतीय जनतंत्र ही सबल एवं सफल हो सकता है |
 
== इन्हें भी देखें ==
 
* [[आधुनिक लोकतंत्र]]
* [[सहभागी लोकतंत्र]] (participatory democracy)