"नैतिक शिक्षा": अवतरणों में अंतर
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वर्तमान विश्व के विकास के प्रमुख आधार विज्ञान और प्रौद्योगिकी है। वर्तमान विश्व में न केवल ज्ञान का विस्फोट, जनसंख्या का विस्फोट, गतिपूर्ण सामाजिक परिवर्तन आदि हो रहे हैं, अपितु हमारे परिवार तथा समाज का ढांचा भी उसी गति से परिवर्तित हो रहा है। प्रचार विचार-विमर्श तथा विचार-विनियम के नवीन प्रभावी साधन विकसित हो रहे हैं। इन सभी का हमारे नैतिक मूल्यों पर प्रभाव पड़ा है। आज आवश्यकता इस बात की है कि विज्ञान-आधारित विकास को जीवन-शक्ति हमारे नैतिक एवं आध्यात्मिक आधारों से प्राप्त है।
नैतिक शिक्षा को सामान्यतः व्यापक रूप में ग्रहण किया जाता है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की क्रियाएं समाहित हैं।
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कुछ विचारकों का मत है कि :-
कुछ विचारकों ने नैतिक प्रशिक्षण को कुछ विशिष्ट सद्गुणों(Virtues) तथा आदतों का विकास माना है। परंतु इससे सिद्धान्त-शिक्षण(Indoctrination) के विकास की संभावना है।
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नैतिक शिक्षा द्वारा बच्चों को उन विभिन्न परिस्थितियों में रखा जाए जिनमें वे अपनी संज्ञानात्मक क्षमता के आधार उपयुक्त नैतिक निर्णय बनाने में समर्थ हो सके। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बालकों के समक्ष विभिन्न परिस्थितियाँ में रखा जाए जिनमें वे अपनी संज्ञानात्मक क्षमता के आधार उपयुक्त नैतिक निर्णय बनाने में समर्थ हो सके। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बालकों के समक्ष विभिन्न परिस्थितियाँ प्रस्तुत की जायें जिनमें वे अपने स्वयं के नैतिक निर्णय बना सके अर्थात वे स्वयं अपने मूल्यों का निर्माण कर सके।
'''चरित्र का निर्माण –''' मनुष्य के भाग्य का निर्माण उसका चरित्र करता है। चरित्र ही उसके जीवन में उत्थान और पतन, सफलता और विफलता का सूचक है। अतः बालक को सफल व्यक्ति, उत्तम नागरिक और समाज का उपयोगी सदस्य बनाना चाहते हैं तो उसके चरित्र का निर्माण किया जाना परम आवश्यक है। यह तभी सम्भव है, जब उसके लिए धार्मिक और नैतिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
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'''अनंत मूल्यों की प्राप्ति –''' सत्यम, शिवम और सुंदरम अनंत मूल्य समझे जाते हैं। ये सबसे अधिक मूल्यवान वस्तुएँ हैं जो स्वतः अपना अस्तित्व रखती है और हमारे आदर एवं निष्ठा की पात्र हैं। हम केवल धर्म और नैतिकता के माध्यम से ही इन मूल्यों को खोजकर और प्राप्त करके अपने जीवन को पूर्ण बना सकते हैं।
अर्नेस्ट चेव के अनुसार बालकों को धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी इसलिए आवश्यक है, क्योंकि वह उनमें अनेक अच्छे गुणों और आदतों का निर्माण करती है, यथा-उत्तरदायित्व की भावना, सत्य की खोज, उत्तम आदर्शों की प्राप्ति, जीवन-दर्शन का निर्माण, आध्यात्मिक मूल्यों की अभिव्यक्ति इत्यादि।
मुहीउद्दीन के अनुसार, भारतीय सन 1950 से धार्मिक और नैतिक शिक्षा की माँग करते चले आ रहे हैं। उनकी माँग का आधार यह ऐतिहासिक तथ्य है कि धर्म और नैतिकता का उनके जीवन में अति महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उनकी माँग को पूरा न करना, इस ऐतिहासिक तथ्य की अवहेलना करना है।
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‘विश्वविद्यालय शिक्षा-आयोग' के प्रतिवेदन में अंकित ये शब्द अक्षरशः सत्य है, “यदि हम अपनी शिक्षा- संस्थाओं से आध्यात्मिक प्रशिक्षण को निकाल देंगे, तो हम अपने सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास के विरुद्ध कार्य करेंगे।
भारत में अनेक धर्मों और सम्प्रदायों के व्यक्ति निवास करते हैं। संविधान की 19वीं धारा उनको अपने धर्मों का अनुसरण करने की पूर्ण स्वतंत्रता देती है। गांधीजी के अनुसार “मेरे लिए नैतिकता, सदाचार और धर्म –पर्यायवाची शब्द है। नैतिकता के आधारभूत सिद्धांत सब धर्मों में समान हैं। इसे बच्चों को निश्चित रूप से पढ़ाया जाना चाहिए और इसको पर्याप्त धार्मिक शिक्षा समझा जाना चाहिए।
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5. डिग्री कोर्स के पाठ्यक्रम में संसार के विभिन्न धर्मों के सामान्य अध्ययन को स्थान दिया जाए।
1. सामाजिक नियम जो सामाजिक आदर्शों की प्राप्ति में सहायक होते है नैतिक नियम होते हैं और उनको पालन करने का भाव अथवा शक्ति नैतिकता है।
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5. बालकों में नैतिकता का विकास करने के लिए विद्यालय अपने विभिन्न क्रियाकलापों द्वारा शैक्षणिक कार्यक्रमों का आयोजन कर सकता है।
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1. लाल, रमन बिहारी (1982) : शिक्षा के दार्शनिक और समाज शास्त्रीय आधार, मेरठ, रस्तोगी प्रकाशन (उ. प्र.) ।
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